Saturday, 23 September 2017

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 93



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 157

"वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का परलोकगमन"
 


19 जनवरी, 1597 ई.


* महाराणा प्रताप के समक्ष सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत व अन्य सभी सामन्तों ने बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर कहा कि "हम सभी कुंवर अमरसिंह द्वारा लड़ी जाने वाली स्वाधीनता की इस लड़ाई में अन्त तक उनके साथ रहेंगे"

शपथ सुनने के बाद चावण्ड में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का देहान्त हुआ

चावण्ड से डेढ मील दूर बांडोली गांव में महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार हुआ

टूट गया बल हो गए हताश आँखें हैं नम,
दुर्ग से फहराता वो ध्वज कहे समय है कम |
पूतों के बलिदानों को यूँ देख रोता है मन,
जय-जय जिसकी होती थी जयकार वो मेवाड़ है नम

बांडोली में महाराणा प्रताप की 8 खम्भों की छतरी बनी हुई है

महाराणा प्रताप की छतरी पर उनकी एक बहिन की छतरी का पत्थर भी था, जिस पर 1601 ई. का शिलालेख खुदा था

* महाराणा प्रताप ने 24 वर्ष, 10 माह, 26 दिन तक शासन किया

* अबुल फजल लिखता है

"राणा कीका की मौत हो गई | ऐसा लगता है कि राणा के शरारती बेटे अमरा (अमरसिंह) ने राणा को खाने में ज़हर देकर मार डाला | वह (प्रताप) कमान (धनुष) को मोड़ते वक्त ज़ख्मी भी हुआ था"

(या तो अबुल फजल ने किसी अफवाह के चलते ये बात लिखी या फिर महाराणा प्रताप से नाराजगी के सबब से |

इस बात को गलत साबित करने के लिए पहला तर्क ये है कि कुंवर अमरसिंह बड़े ही पितृभक्त थे, इसलिए वे एेसा नीच काम नहीं कर सकते थे | मेवाड़ में एक रिवाज था कि उत्तराधिकारी कभी भी पिता की चिता को अग्नि नहीं देता था | महाराणा अमरसिंह मेवाड़ के पहले एेसे शासक थे, जिन्होंने खुद अपने पिता की चिता को अग्नि दी और सदियों से चला आ रहा ये नियम तोड़ा | ये महाराणा अमरसिंह की पितृभक्ति ही थी |

दूसरा तर्क ये है कि महाराणा अमरसिंह ने राजगद्दी पर बैठकर अय्याशी करने के बजाय 18 वर्षों तक जंगलों में रहकर मुगलों से कईं युद्ध लड़े | भला मेवाड़ के इस काँटों से भरे राजसिंहासन के लिए कौन अपने पिता को मारकर राज करना चाहेगा)

* (अक्सर एक बात सुनी जाती है कि महाराणा प्रताप के देहान्त पर अकबर भी रोया था | कुछ लोग इसे झूठी बात कहते हैं, लेकिन ये एक सत्य है)

अकबर का दरबार लगा हुआ था, तभी महाराणा प्रताप के देहान्त का समाचार वहां पहुंचा

वहां खड़े सभी मुगल प्रसन्न हुए, पर दरबार में उपस्थित राजपूतों की आंखें भर आई

उन्हीं राजपूतों में उस वक्त कवि दुरसा आढ़ा भी थे, जिन्होंने उस वक्त अकबर के जो हाव-भाव देखे, उसे अपने दोहों के माध्यम से लिखा -

"अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी |
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी |
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली |
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली |

गुहिल राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी |
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी |"

अर्थात्

"राणा ने अपने घोडों पर दाग नहीं लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था), उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नहीं | जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया | तुम्हारा रौब दुनिया पर ग़ालिब था | तुम कभी नोरोजे के जलसे में नहीं गये, न बादशाह के डेरों में गए | न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी | (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे)
हे प्रतापसी ! तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गुहिल राणा जीत गया"

* महाराणा प्रताप के देहान्त के कुछ वर्षों बाद लिखे गए ग्रन्थ 'राणा रासौ' में लिखा है

"राणा प्रताप सोनगिरी रानी से उत्पन्न हुआ और संसार में अद्वितीय वीर माना गया | वह दानी एवं युद्ध में शत्रुओं को दलने वाला था | प्रतापसिंह अपना प्रताप स्वयं फैलाने वाला था | उसमें अक्षुण्ण रजोगुण विद्यमान था | इस संसार में जैसा राणा प्रताप हुआ है, वैसा ना अब तक कोई हुआ और न कभी होगा | राणा प्रताप युधिष्ठिर के समान सत्यवक्ता, दधीचि के समान उदारवृद्धि, दशरथ के समान पुरुषार्थी, भीम के समान युद्ध करने वाला, रावण के समान स्वाभिमानी एवं राम के समान प्रणपालक था | वह भारतवर्ष में विक्रम, भोज, कर्ण व सूर्य स्वरुप माना जाता है | राजागण उसको अपना शिरोमणि मानते थे | प्रताप नरेश हिन्दुओं का अडिग ताज था | हे प्रताप तुम युग-युग जीवित रहो | तुम्हारे स्मरण मात्र से पाप दूर हों | तुम भगवान एकलिंग के द्वितीय अंग माने जाते रहो, हिन्दुओं के पिता बने रहो"

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के बारे में समकालीन लेखकों व विभिन्न इतिहासकारों के मत के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

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