* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 128
1578 ई.
"महाराणा प्रताप का डूंगरपुर पर हमला"
डूंगरपुर रावल आसकरण ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली, जिस वजह से महाराणा प्रताप ने फौज समेत डूंगरपुर की तरफ कूच किया
महाराणा प्रताप के आने की खबर सुनकर रावल आसकरण अपनी रानियों समेत किला छोड़कर पहाड़ियों में चले गए
मारवाड़ के राव चन्द्रसेन राठौड़ इस वक्त डूंगरपुर के निकट ही पहाड़ियों में थे
(राव चन्द्रसेन रावल आसकरण की पत्नी पार्वती के भाई थे)
इस वक्त डूंगरपुर के किले में रावल आसकरण के कुछ पुत्र और राव चन्द्रसेन का परिवार था
महाराणा प्रताप डूंगरपुर दुर्ग पहुंचे, तो किले वालों ने डरकर राव चन्द्रसेन को बुलावा भिजवाया
राव चन्द्रसेन महाराणा प्रताप का बहुत आदर करते थे, इसलिए उन्होंने इस मामले में ना पड़कर पंचोली सुरताण को भेजकर डूंगरपुर से अपने परिवार को बुला लिया
इसी समय रावल आसकरण ने राव चन्द्रसेन को खत लिखा कि "हम महाराणा प्रताप से विरोध नहीं कर पाएंगे, इसलिए आप डूंगरपुर पधारें"
तब राव चन्द्रसेन डूंगरपुर पहुंचे
राव चन्द्रसेन को वहां देखकर महाराणा प्रताप ने युद्ध न करने का फैसला किया, क्योंकि राव चन्द्रसेन महाराणा प्रताप के मित्र व बहनोई थे
महाराणा प्रताप के चावण्ड की तरफ जाने की खबर सुनकर रावल आसकरण अपनी रानियों समेत डूंगरपुर पहुंचे
* इसी वर्ष मेवाड़ के कोटड़ा गाँव में राव चन्द्रसेन की महाराणा प्रताप से मुलाकात हुई
महाराणा प्रताप ने राव चन्द्रसेन से कहा कि "पुरानी बातों को भुलाकर फिर से एक होकर मुगलों से लड़ा जाए, तो बेहतर रहेगा, इसलिए आप अपने इलाके में मुगल विरोधी कार्य करना शुरु कर देवें"
:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)
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