Saturday, 23 September 2017

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 96 (अन्तिम भाग)



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 160

"महाराणा प्रताप के इतिहास का अन्तिम भाग"

"महाराणा प्रताप से सम्बन्धित स्थान"


* चित्तौड़गढ़ - यहां महाराणा प्रताप लगभग 17 वर्षों (1550 ई. - 1567 ई.) तक रहे

* कुम्भलगढ़ दुर्ग - महाराणा प्रताप का जन्म स्थान व युद्ध स्थली | महाराणा प्रताप इस दुर्ग में 4-5 युद्ध लड़े, जिनमें से एक को छोड़कर सभी में विजयी हुए | महाराणा ने यहां हुसैन कुली खान व अब्दुल्ला खान को पराजित किया था |

* हमीरसर/हमेरपाल/हमीरपाल तालाब - कुम्भलगढ़ के पास स्थित इस तालाब पर महाराणा प्रताप ने दिवेर विजय के बाद अधिकार किया

* हल्दीघाटी - राजसमन्द जिले में स्थित युद्ध स्थली | यहां हल्दीघाटी म्यूजियम भी है | 1985 ई. में यहां तलवारों का ज़खीरा मिला |

* हल्दीघाटी दर्रा - इसी दर्रे में से महाराणा प्रताप श्वेत अश्व चेतक पर सवार होकर अपनी सेना सहित हल्दीघाटी युद्ध के लिए निकले थे |

* आवरगढ़ :- महाराणा प्रताप द्वारा हल्दीघाटी युद्ध के बाद दो वर्षों तक आवरगढ़ को राजधानी बनाई गई | आवरगढ़ मेवाड़ का सबसे विकट व सुरक्षित पहाड़ी स्थान है, जहां कभी शत्रु सेना नहीं पहुंच सकी | यहां महाराणा प्रताप, उनके सैनिकों के रहने के कई खण्डहर मौजूद हैं | सभा का स्थान पहाड़ी के ऊपरी भाग पर है, जहां चबूतरा बना है | इस पहाड़ी से लगभग 20 मील तक निगरानी रखी जा सकती थी |

* दिवेर - राजसमन्द जिले में स्थित युद्ध स्थली

* मचीन्द - कुंवर अमरसिंह का जन्म स्थान | यहां एक काफी लम्बी गुफा है, जो महाराणा प्रताप संकट के समय एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए प्रयोग करते थे |

* मोती महल - उदयपुर जिले में स्थित | इसका निर्माण महाराणा उदयसिंह ने करवाया | ये महाराणा प्रताप का निवास स्थान था |

* चोर बावड़ी गांव - उदयपुर-गोगुन्दा के बीच स्थित इस गांव का निर्माण जसवन्त सिंह देवड़ा ने किया | ये महाराणा प्रताप का साथ देने सिरोही से मेवाड़ आए थे | महाराणा ने इस गांव में कुछ समय बिताया और यहां एक बावड़ी बनवाई | इस बावड़ी को दासियों को समर्पित करते हुए इसका नाम "दासियों की बावड़ी" रखा गया |

* छापली गांव - यहां महाराणा प्रताप ने छपामार युद्ध से मुगलों को पराजित किया | इसमें स्थानीय लोग भी महाराणा की तरफ से लड़े, तब से यह स्थान छापली रणभूमि के नाम ये विख्यात है | यहां महाराणा प्रताप का स्मारक स्थित है |

* मेवा का मथारा - दिवेर विजय का स्मारक

* उभयेश्वर महादेव मन्दिर

* चामुण्डा माता का मन्दिर (चावण्ड) - महाराणा प्रताप ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था

* एकलिंग जी का मन्दिर (नाथद्वारा)

* बदराणा - इस गांव का नाम महाराणा प्रताप ने झाला मान/बींदा की याद में बिदराणा रखा, जो कालान्तर में बदराणा हो गया | इस गांव में महाराणा प्रताप ने हरिहर मन्दिर का निर्माण करवाया |

* कोल्यारी - महाराणा प्रताप द्वारा स्थापित प्राथमिक उपचार केन्द्र

* रकमगढ़ की छापर (राजसमन्द)

* गोगुन्दा - गोगुन्दा में महाराणा प्रताप कुछ वर्षों तक रहे | यहां 4 बार मुगलों ने अधिकार किया व चार बार महाराणा प्रताप ने शाही फौज को शिकस्त दी | यहां महाराणा उदयसिंह का देहान्त हुआ | यहां स्थित महादेव जी की बावड़ी में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ | गोगुन्दा के राजमहल वर्तमान में राज राणा का निवास स्थान है |

* मनकियावास - महाराणा प्रताप ने दिवेर के युद्ध की रणनीति गोमती चौराहा से 3 किमी. व आमेट से 15 किमी. दूर मनकियावास के जंगलों में तैयार की | जंगली बिलावों की अधिकता के कारण इस गांव का नाम मनकियावास पड़ा | आत्मसुरक्षा के साथ ही आमेट, देवगढ़, रुपनगर व आसपास के ठिकानों से मदद पाने की नजर से भी यह स्थान उपयुक्त था | यहां से दिवेर की दूरी भी कम है | यहां बरगद के पेड़ के नीचे स्थित गुफा में रहते हुए महाराणा प्रताप गुप्त सुचनाएं एकत्रित करते थे |

* मोही - यहां कई बार महाराणा प्रताप व मुगलों के बीच युद्ध हुए

* मदारिया - यहां भी कई बार महाराणा प्रताप व मुगलों के बीच युद्ध हुए

* रामा - मुगल फौज ने इस गांव में महाराणा प्रताप की खोज की, लेकिन महाराणा नहीं मिले

* लोसिंग - हल्दीघाटी युद्ध के लिए प्रस्थान करते वक्त महाराणा प्रताप ने यहां पड़ाव डाला था

* मायरा की गुफा - उदयपुर से 30 किमी. दूर मोड़ी (गोगुन्दा) में स्थित | इस गुफा में प्रवेश के 3 मार्ग हैं | इस गुफा की खासियत ये है कि बाहर से देखने पर लगता है जैसे अन्दर कोई रास्ता नहीं है, पर जैसे-जैसे अन्दर जाते हैं रास्ता निकलता जाता है | गुफा में माँ हिंगलाज का प्राचीन स्थान है | यहां वो स्थान भी है जहां स्वामिभक्त चेतक को बांधा जाता था | यहां महाराणा प्रताप का रसोईघर भी है | इस गुफा की पहाड़ी से 10-12 मील दूर खड़ा कोई व्यक्ति दिखाई दे जाता था, पर 10-12 कदम दूर खड़ा व्यक्ति भी इस गुफा को नहीं देख पाता |

* जावर :- यहां जावरमाला की गुफा है, जिसमें महाराणा प्रताप कुछ समय रहे थे |

* आहोर व रोहेड़ा गांव :- इन गांवों में महाराणा प्रताप द्वारा निर्मित महल (छोटे मकान) हैं, जो अब तक मौजूद हैं |

* मायरा स्थित शस्त्रागार - इस शस्त्रागार के प्रधान हकीम खान सूर थे

* चावण्ड - मेवाड़ की राजधानी | यहां महाराणा प्रताप 12 वर्षों (1585 ई. - 1597 ई.) तक रहे

* बांडोली - महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार स्थल

* अन्य स्थान - राणा खेत, राणा कड़ा, राणा गुफा, राणा का ढाणा, गौरी धाम, पंच महुआ, जोगमंडी, भीमगढ़, गोकुलगढ़, हाथीभाटा, कमेरी, धमकी मोड़ी, घोड़ाघाटी

Tanveer Singh Sarangdevot


* अगले भाग से महाराणा अमरसिंह जी का इतिहास लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 95



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 159

* वे घटनायें, जिनमें महाराणा प्रताप के नाम ने प्रेरणा का काम किया :-


"महाराजा मानसिंह द्वारा महाराणा का उदाहरण देना"

एक समय जोधपुर में अंग्रेज सरकार के खिलाफ बहुत उपद्रव होने लगे, तो अंग्रेजों की एक पलटन जोधपुर भेजी गई

जोधपुर महाराजा मानसिंह ने अपने सर्दारों से सलाह की, तो सर्दारों ने अंग्रेजी फौज को प्रबल बताया

कुचामन ठाकुर ने कहा "प्रबल हुकूमत से बगावत करना ठीक नहीं होगा महाराज साहब | मेवाड़ के महाराणा प्रताप लड़े थे बादशाह से, तो पैर-पैर पर्वतों में फिरे थे"

तब महाराजा मानसिंह ने कुचामन ठाकुर के कथन के विरोध में ये दोहा फर्माया :-

"गिरपुर देस गमाड़,
भमिया पग-पग भाखरां |
सह अँजसै मेवाड़,
सह अँजसै सिसोदिया ||"

अर्थात्

अपने पर्वत, नगर और देश गमाकर पैदल ही पर्वतों में घूमते रहे, पर महाराणा ने अपने धर्म की रक्षा की, जिससे आज मेवाड़ का देश गर्व करता है व सिसोदिया जाति घमंड करती है |

"बाजीराव पेशवा का मेवाड़ आगमन"

आधे हिन्दुस्तान पर मराठाओं का ध्वज फहराने वाले बाजीराव पेशवा का जब मेवाड़ आगमन हुआ, तब महाराणा जगतसिंह (महाराणा प्रताप के प्रपौत्र) ने बाजीराव को अपने साथ सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया

तब बाजीराव पेशवा ने ये कहते हुए मना कर दिया कि "ये सिंहासन महाराणा प्रताप जैसे योद्धाओं की धरोहर है, यहाँ हम नहीं बैठ सकते हैं"

"महाराणा फतेहसिंह द्वारा दिल्ली दरबार में न जाना"

1903 ई. में लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में सभी राजाओं के साथ मेवाड़ के महाराणा का जाना राजस्थान के जागीरदार क्रान्तिकारियों को अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए उन्हें रोकने के लिए शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूरसिंह ने ठाकुर करण सिंह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिलकर महाराणा फतेहसिंह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ को दी | केसरी सिंह बारहठ ने "चेतावनी रा चुंग्ट्या" नामक सौरठे रचे जिन्हें पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुए और दिल्ली दरबार में न जाने का निश्चय किया | वे दिल्ली आने के बावजूद समारोह में शामिल नहीं हुए |

इस रचना में केसरी सिंह बारहठ ने बार-बार महाराणा प्रताप का जिक्र किया व महाराणा फतेहसिंह के सोये हुए स्वाभिमान को जगाया |

"कर्नाटक में एकीकरण"

कर्नाटक के नेता कर्नाटक कुल पुरोहित आलूर वेंकटराव ने कर्नाटक के एकीकरण की लड़ाई में महाराणा प्रताप के आदर्श को अपनाया | इस बात को उन्होंने अपने वक्तव्यों व लेखों में प्रकट किया व लोगों में स्वतंत्रता की भावना जगाई |

"केसरी सिंह बारहठ द्वारा पुत्र का नामकरण"

मेवाड़ के क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ महाराणा प्रताप के विचारों व स्वाभिमान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'प्रताप सिंह बारहठ' रख दिया |

"प्रताप पत्रिका का प्रकाशन"

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी महाराणा प्रताप के परम भक्त थे | उन्होंने अपने राष्ट्रीय पत्र 'प्रताप' का नाम भी महाराणा प्रताप की पुण्य स्मृति में ही रखा |

* अगला भाग महाराणा प्रताप के इतिहास का अन्तिम भाग होगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 94



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 158

* अंग्रेज इतिहासकार विन्सेट स्मिथ अपनी किताब 'दी ग्रेट मुगल - अकबर' में लिखता है

"राणा प्रताप पर हमला करने की कोई एक खास वजह लिखना जरुरी नहीं है, उसकी देशभक्ति ही उसका गुनाह था | सभी राजा-महाराजाओं में केवल राणा की आजादी अकबर से सहन नहीं हो रही थी | राणा को वह अन्य राजाओं की तरह झुकाने में असफल हुआ, तो अकबर ने उसे तोड़ने की कोशिश की | हल्दीघाटी युद्ध के जरिए अकबर राणा व उसके साम्राज्य को पूर्ण रुप से नष्ट करना चाहता था | पर इस अभियान से अकबर को घोर निराशा हुई, क्योंकि वह राणा के दम्भ को कुचल नहीं पाया था | अकबर राणा की मृत्यु चाहता था, पर राणा भी अपने जीवन का बलिदान करने में पीछे नहीं था | राणा मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध बनाकर अपने रक्त को दूषित नहीं करना चाहता था | बहुत पीड़ा सहन करने के बाद राणा सफल हुआ और अकबर असफल"

* अबुल फजल लिखता है "शहंशाह जो फरमान तकरीबन पूरे हिन्दुस्तान में जारी करते थे, वो फरमान राणा कीका नहीं मानता था"

* अंग्रेज इतिहासकार हैरिस लिखता है

"यद्यपि आगरे का नया शहर बसाने में अकबर का ध्यान लग रहा था, तो भी राज्य की वह तृषा, जो कि उसकी तख्तनशीनी के शुरु के सालों में नज़र आई थी, न बुझी | हिन्दुस्तान के एक राजा का हाल सुनकर, जो कि अकलमन्दी और दिलेरी के वास्ते मशहूर था | जिसका इलाका बादशाह की राजधानी से सिर्फ बारह मंजिल के फासिले पर था, उसको बादशाह ने फौरन फ़तह करने का इरादा किया | खासकर इस वजह से कि वह इलाका उसके मौरुसी राज्य और नये फ़तह किए गए मुल्क के बीच में था | इस राजा का नाम राणा प्रताप था | राणा का खिताब उसके खानदान के सब राजाओं को हिन्दुस्तान के पुराने दस्तूर के मुवाफ़िक दिया जाता था | उसकी मदद करने वाला अगर कोई दूसरा राजा होता, तो वह अपने मुल्क चित्तौड़ की आज़ादी फिर हासिल कर लेता | तो भी उसने बड़े दरजे की कोशिश की, जो कि इस मुल्क की तवारिख में हमेशा याद रहेगी"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"मैं उन पहाड़ियों पर चढ़ा हूँ, उन नालों को पार किया है और उन मैदानों में घूमा हूँ, जो प्रताप के गौरवमय रंगमंच में पड़ते हैं | मैंने इनके वंशजों से पूछताछ की, तो वे कई बार इनकी गाथा सुनाते-सुनाते रो पड़ते थे"

* अंग्रेज इतिहासकार विन्सेट स्मिथ लिखता है

"प्रताप को उत्तराधिकार में एक तेजस्वी वंश का यश और उपाधियां प्राप्त हुई थीं, लेकिन न उसके पास राजधानी थी और न साधन"

* अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ लिखता है

"वास्तव में प्रताप एेसा व्यक्तिवादी विद्रोही था, जो अकबर के महान साम्राज्य के सपने को नष्ट करने में जुटा हुआ था | वह अपने राज्य की स्वतंत्रता को अपने से चिपटाए हुए था | शाही दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान के वादे को उसने तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया था | जो दूसरे राज्यों ने किया था, उसका कोई अनुकूल प्रभाव प्रताप पर नहीं पड़ा | उसने मेवाड़ की स्वतंत्रता को अपने हृदय से लगाए रखने, जब तक बन पड़े उसकी रक्षा करने और फिर उसकी रक्षा के लिए जान देने की ठान रखी थी"

* एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है

"जिस शान के साथ दिल्ली का बादशाह अपने बड़े से तख्त पर बैठकर हिन्दुस्तान पर हुकूमत करता था, ठीक उसी शान के साथ मेवाड़ का राणा कीका जंगलों में पत्थर पर बैठकर उसी हुकूमत का विरोध करता था"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"वर्ष के उपरान्त वर्ष व्यतीत होते गए | हर वर्ष प्रताप के साधन कम हो जाते थे और उसकी विपत्तियां बढ़ जाती थीं | मनोभावना को आकाश जीतना ऊँचा उठा देने वाले छन्दों द्वारा देशप्रेमी प्रताप की प्रशंसा करने में राजा और सामन्त, हिन्दु और तुर्क सबमें होड़ लगी रहती थी"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"जो घाटी उदयपुर की रक्षा करती है, उसकी चोटी से प्रताप चित्तौड़ के उन कंगूरों को देखता था, जिनसे उसे सदा अनजान रहना था"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"मुगल सम्राट अकबर की स्मृति के लिए यह सम्मान की ही बात है कि उसका नाम प्रताप के साथ अनेक परम्परागत पद्य-पंक्तियों में अंकित है"

* अंग्रेज इतिहासकार फ्रेडरिक लिखता है

"दरबारी इतिहासकार चाहे जो कहें, प्रताप को विद्रोही व दुराग्रही जमींदार नहीं माना जाना चाहिए | जो भूमि उसके अधीन थी, वो स्वयं उसकी थी | संग्राम में उसके साथ ऐसे सामन्त जाते थे, जिनसे पीढियों से सम्बन्ध था | उसे समस्त राजपूत अपना विधिवत स्वाभाविक स्वामी स्वीकार करते थे"

* अगले भाग में उन घटनाओं का उल्लेख होगा, जिनमें महाराणा प्रताप के नाम ने प्रेरणा का काम किया

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 93



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 157

"वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का परलोकगमन"
 


19 जनवरी, 1597 ई.


* महाराणा प्रताप के समक्ष सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत व अन्य सभी सामन्तों ने बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर कहा कि "हम सभी कुंवर अमरसिंह द्वारा लड़ी जाने वाली स्वाधीनता की इस लड़ाई में अन्त तक उनके साथ रहेंगे"

शपथ सुनने के बाद चावण्ड में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का देहान्त हुआ

चावण्ड से डेढ मील दूर बांडोली गांव में महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार हुआ

टूट गया बल हो गए हताश आँखें हैं नम,
दुर्ग से फहराता वो ध्वज कहे समय है कम |
पूतों के बलिदानों को यूँ देख रोता है मन,
जय-जय जिसकी होती थी जयकार वो मेवाड़ है नम

बांडोली में महाराणा प्रताप की 8 खम्भों की छतरी बनी हुई है

महाराणा प्रताप की छतरी पर उनकी एक बहिन की छतरी का पत्थर भी था, जिस पर 1601 ई. का शिलालेख खुदा था

* महाराणा प्रताप ने 24 वर्ष, 10 माह, 26 दिन तक शासन किया

* अबुल फजल लिखता है

"राणा कीका की मौत हो गई | ऐसा लगता है कि राणा के शरारती बेटे अमरा (अमरसिंह) ने राणा को खाने में ज़हर देकर मार डाला | वह (प्रताप) कमान (धनुष) को मोड़ते वक्त ज़ख्मी भी हुआ था"

(या तो अबुल फजल ने किसी अफवाह के चलते ये बात लिखी या फिर महाराणा प्रताप से नाराजगी के सबब से |

इस बात को गलत साबित करने के लिए पहला तर्क ये है कि कुंवर अमरसिंह बड़े ही पितृभक्त थे, इसलिए वे एेसा नीच काम नहीं कर सकते थे | मेवाड़ में एक रिवाज था कि उत्तराधिकारी कभी भी पिता की चिता को अग्नि नहीं देता था | महाराणा अमरसिंह मेवाड़ के पहले एेसे शासक थे, जिन्होंने खुद अपने पिता की चिता को अग्नि दी और सदियों से चला आ रहा ये नियम तोड़ा | ये महाराणा अमरसिंह की पितृभक्ति ही थी |

दूसरा तर्क ये है कि महाराणा अमरसिंह ने राजगद्दी पर बैठकर अय्याशी करने के बजाय 18 वर्षों तक जंगलों में रहकर मुगलों से कईं युद्ध लड़े | भला मेवाड़ के इस काँटों से भरे राजसिंहासन के लिए कौन अपने पिता को मारकर राज करना चाहेगा)

* (अक्सर एक बात सुनी जाती है कि महाराणा प्रताप के देहान्त पर अकबर भी रोया था | कुछ लोग इसे झूठी बात कहते हैं, लेकिन ये एक सत्य है)

अकबर का दरबार लगा हुआ था, तभी महाराणा प्रताप के देहान्त का समाचार वहां पहुंचा

वहां खड़े सभी मुगल प्रसन्न हुए, पर दरबार में उपस्थित राजपूतों की आंखें भर आई

उन्हीं राजपूतों में उस वक्त कवि दुरसा आढ़ा भी थे, जिन्होंने उस वक्त अकबर के जो हाव-भाव देखे, उसे अपने दोहों के माध्यम से लिखा -

"अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी |
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी |
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली |
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली |

गुहिल राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी |
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी |"

अर्थात्

"राणा ने अपने घोडों पर दाग नहीं लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था), उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नहीं | जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया | तुम्हारा रौब दुनिया पर ग़ालिब था | तुम कभी नोरोजे के जलसे में नहीं गये, न बादशाह के डेरों में गए | न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी | (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे)
हे प्रतापसी ! तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गुहिल राणा जीत गया"

* महाराणा प्रताप के देहान्त के कुछ वर्षों बाद लिखे गए ग्रन्थ 'राणा रासौ' में लिखा है

"राणा प्रताप सोनगिरी रानी से उत्पन्न हुआ और संसार में अद्वितीय वीर माना गया | वह दानी एवं युद्ध में शत्रुओं को दलने वाला था | प्रतापसिंह अपना प्रताप स्वयं फैलाने वाला था | उसमें अक्षुण्ण रजोगुण विद्यमान था | इस संसार में जैसा राणा प्रताप हुआ है, वैसा ना अब तक कोई हुआ और न कभी होगा | राणा प्रताप युधिष्ठिर के समान सत्यवक्ता, दधीचि के समान उदारवृद्धि, दशरथ के समान पुरुषार्थी, भीम के समान युद्ध करने वाला, रावण के समान स्वाभिमानी एवं राम के समान प्रणपालक था | वह भारतवर्ष में विक्रम, भोज, कर्ण व सूर्य स्वरुप माना जाता है | राजागण उसको अपना शिरोमणि मानते थे | प्रताप नरेश हिन्दुओं का अडिग ताज था | हे प्रताप तुम युग-युग जीवित रहो | तुम्हारे स्मरण मात्र से पाप दूर हों | तुम भगवान एकलिंग के द्वितीय अंग माने जाते रहो, हिन्दुओं के पिता बने रहो"

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के बारे में समकालीन लेखकों व विभिन्न इतिहासकारों के मत के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 92



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 156

1592 ई.


* इस वर्ष 5 जनवरी को अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र खुर्रम का जन्म हुआ, जो बाद में शाहजहां के नाम से मशहूर हुआ

* चावण्ड चित्रशैली के प्रसिद्ध चित्रकार नसीरुद्दीन की कृति "ढोलामारु" (1592 ई.) है, जो नई दिल्ली संग्रहालय में सुरक्षित है | नसीरुद्दीन महाराणा प्रताप के प्रसिद्ध दरबारी चित्रकार थे |
नसीरुद्दीन (बायें से पहले) व चक्रपाणि (बायें से तीसरे)

1593 ई.

* बांसवाड़ा के महारावत तेजसिंह का देहान्त हुआ | रावत भानुसिंह बांसवाड़ा की गद्दी पर बैठा और मुगलों की ताबेदारी कुबूल की |

1594 ई.

"डाईलाणा का ताम्रपत्र"

> यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप द्वारा आश्विन शुक्ला 15 संवत् 1651 (1594 ई.) को जारी गया

> इस ताम्रपत्र में गोडवाड क्षेत्र के डाईलाणा गांव में रोहीतास चौधरी को 4 खेत व 1 रहट प्रदान करने का आदेश है

> ताम्रपत्र में इस भूमि का भूमिकर साढ़े 4 कलसी लिखा हुआ है

('कलसी' शब्द नाप के पात्र के लिए प्रयोग हुआ है)

"महाराज शक्तिसिंह का देहान्त"

> भैंसरोडगढ़ दुर्ग में महाराणा प्रताप की मौजूदगी में उनके भाई शक्तिसिंह जी का देहान्त

> शक्तिसिंह जी के संभवत: 17 पुत्र हुए, ये सभी बड़े बहादुर थे

> इनके दो पुत्रों अचलदास व बल्लु से अकबर के शाही दरबार में आगरा के किलेदार रामदास कछवाहा ने कहा कि अपनी-अपनी तलवारें शहंशाह के सामने डालो

दोनों ने बिना किसी खौफ के तलवार डालने से मना किया

महाराणा प्रताप को जब इस घटना कि सूचना मिली, तो उन्होंने अचलदास को अपने पास बुलाकर देसूरी का पट्टा दे दिया

> महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र भाण को भीण्डर की जागीर दी

"राव पत्ता हाडा का दमन"

> खैराड़ नामक स्थान का राव पत्ता हाडा महाराणा प्रताप का आदर नहीं करता था | एक बार वह अपने भाई उदयसिंह के साथ शक्तावतों की गायें खोलने गया, जिन्हें छुड़ाने में शक्तिसिंह जी के पुत्र चतुर्भुज वीरगति को प्राप्त हुए |

> महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र अचलदास को भेजा

अचलदास अपने 4 भाईयों के साथ गए और पानगढ़ दुर्ग को घेर लिया, पर राव पत्ता बच निकला

कुछ समय बाद फिर इनका आमना-सामना हुआ और राव पत्ता मारा गया

1595 ई.


* अकबर की सिन्ध व बलूचिस्तान विजय

* इसी वर्ष सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत का देहान्त हुआ | महाराणा प्रताप के सभी सामन्तों में से इनका साथ सबसे अधिक रहा | ये महाराणा के सबसे करीबी सामन्त रहे | इनकी 9 रानियाँ व 10 पुत्र थे | सबसे बड़े पुत्र जैतसिंह चुण्डावत सलूम्बर के 8वें रावत साहब बने |
रावत कृष्णदास चुण्डावत

1596 ई.

* अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र शहरयार का जन्म हुआ

* ईडर के शासक वीरमदेव राठौड़ की आमेर के महलों में हत्या कर दी गई

महाराणा प्रताप की एक रानी वीरमदेव की बहिन थीं

वीरमदेव की कोई सन्तान नहीं थी | इसलिए इनका भाई कल्याणमल ईडर का शासक बना | कल्याणमल ने मेवाड़ से बगावत की |

दिसम्बर-जनवरी, 1597 ई.

"महाराणा प्रताप की नसों में खिंचाव"


महाराणा प्रताप को सूचना मिली की एक शेर इन्सानों व गाय-भैंसों का शिकार कर रहा है

महाराणा प्रताप शेर का शिकार करने जंगल में पधारे

धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाते वक्त महाराणा की नसों में जबर्दस्त खिंचाव हुआ

महाराणा प्रताप तकरीबन महीने भर तक इस पीड़ा को सहते रहे

वैद्य ने उपचार किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ

राजपूताने की लाज रखने वाले इस महान योद्धा का अन्त निकट जानकर राजपूताने की बड़ी-बड़ी हस्तियों से लेकर मेवाड़ की प्रजा तक हर कोई उनका हालचाल पूछने चावण्ड आया

महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह का हाथ अपने हाथ में लिया और उनसे कहा कि मेवाड़ की स्वाधीनता बरकरार रहनी चाहिये

* अगले भाग में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के देहान्त के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 91



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 155

1591 ई.


* महाराणा प्रताप के सहयोगी ताराचन्द कावड़िया (भामाशाह के भाई) का देहान्त

ताराचन्द ने सादड़ी के बाहर एक बारादरी और बावड़ी बनवाई थी, उसके पास ही ताराचन्द, उनकी 4 पत्नियाँ, 1 खवास, 6 गायनियाँ, 1 गवैया और उस गवैये की पत्नी की मूर्तियाँ पत्थरों पर खुदी हुई हैं |

* इसी वर्ष अकबर ने सिन्ध व उड़ीसा पर विजय प्राप्त की

"राजनगर का युद्ध"

दलेल खां नाम के एक मुगल सिपहसालार ने फौज समेत मेवाड़ पर चढाई की

महाराणा प्रताप ने बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को फौज समेत लड़ने भेजा

मनमनदास जी की उम्र इस समय 34 वर्ष की थी

कुंवर मनमनदास वीर जयमल राठौड़ के पौत्र व ठाकुर मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे

राजनगर के पास दोनों फौजों के बीच लड़ाई हुई

दलेल खां हाथी पर सवार था व कुंवर मनमनदास 'चन्द्रभाण' नाम के घोड़े पर सवार थे

कुंवर मनमनदास ने भाला फेंका, जिससे दलेल खां हाथी से गिरकर मर गया

मुगल फौज के पांव उखड़ गए और कुंवर मनमनदास विजयी होकर महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत हुए, तो महाराणा ने कहा कि "तुम्हारा नक्कारा हमेशा हरावल में बजा करेगा"

"कनेचण का युद्ध"

दलेल खां की मौत का बदला लेने के लिए उसके भाई दिलावर खां ने मेवाड़ पर चढाई की

इस बार महाराणा प्रताप ने कुंवर मनमनदास राठौड़ के पुत्रों भंवर दलपति सिंह व भंवर परशुराम को फौज समेत भेजा

कनेचण नामक स्थान पर लड़ाई हुई, जिसमें ये दोनों भाई वीरगति को प्राप्त हुए | दोनों के सिर कट जाने के बाद इनके घोड़े इनके धड़ को लेकर दलपति सिंह के ससुराल शाहपुरा के समीप तसवारिया नाम के गांव में पहुंचे, जहां इनका अन्तिम संस्कार हुआ |

दलपति सिंह की सौलंकिनी रानी उनके साथ सती हुई | दलपति सिंह के वंशज सलूम्बर के छरल्या गांव में हैं |

परशुराम जी अविवाहित थे |

दोनों भाईयों की छतरियां तसवारिया गांव में अब तक मौजूद हैं |

महाराणा प्रताप ने मनमनदास जी के एक पुत्र देवीदास जी को कनेचण की जागीर प्रदान की |

* अगले भाग में महाराज शक्तिसिंह जी, ईडर राव, बांसवाड़ा रावत के देहान्त व महाराणा प्रताप के जख्मी होने  के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 90



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 154

"सूरत की लूट"


महाराणा प्रताप ने सूरत की मुगल छावनियों में लूटमार की और वहां के मुगल सूबेदार से लड़ाई की

महाराणा प्रताप के साथ कुंवर अमरसिंह, भाई शक्तिसिंह व शक्तिसिंह जी के कुछ पुत्र, सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत, कोठारिया रावत पृथ्वीराज चौहान वगैरह बहुत से सर्दार थे

सूबेदार हाथी पर सवार था

महाराणा प्रताप ने भाला फेंका, जिससे सूबेदार तो कत्ल हुआ, पर भाला हाथी के शरीर में घुस गया, जो खींचने पर भी नहीं निकला

तभी कोठारिया के रावत पृथ्वीराज चौहान ने महाराणा का भाला निकाल दिया, इस घटना से प्रसन्न होकर महाराणा प्रताप ने कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया | इसके बाद हर विजयादशमी को महाराणा द्वारा कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया गया |

इस घटना को बांकीदास री ख्यात में कुछ इस तरह लिखा गया है -

"सहर सूरत में राणो प्रताप गोसरे हियो विखा में उमरावा कुवरा समेत सूरत रा सूबेदार नू मार घोड़ा चलाया राणा री हाथ री बरछी सू सूबेदार रा अग रही कोठारिया रै राव जायनै आणी ऊ दिन दसरावा रो गहणा समेत सिरपाव राणोजी कोठारिया रा धणी नू दियो | जिणसू हर दसरावै राणोजी दसरावा रो सिरपाव गहणा समेत कोठारिया रा राव नू वगसै"

1589 ई.


* आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा की मृत्यु हुई

राजा मानसिंह आमेर का शासक बना

* इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन का देहान्त हुआ

अबुल फजल लिखता है "उस जैसा गवैया एक हजार सालों में भी नहीं हुआ"

* इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल की मृत्यु हुई

* इसी वर्ष अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र परवेज़ का जन्म हुआ, जिसने बाद में महाराणा अमरसिंह से लड़ाईंया लड़ीं

1590 ई.

* महाराणा प्रताप के साथ जंगलों में रहकर उनके हर सुख-दुख में साथ रहने वाली मेवाड़ की महारानी अजबदे बाई का देहान्त

"महाराणा प्रताप व शत्रुसाल झाला में अनबन"


महाराणा प्रताप के बहनोई देलवाड़ा के मानसिंह झाला का पुत्र शत्रुसाल उग्र स्वभाव का था और एक भोजन समारोह में उसकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई

शत्रुसाल उठ कर जाने लगा कि तभी महाराणा ने उसके अंगरखे का दामन पकड़कर रोकना चाहा

शत्रुसाल ने क्रोध में आकर पेशकब्ज़ से अपने अंगरखे का दामन काट डाला

शत्रुसाल ने महाराणा से कहा कि "आज के बाद मैं सिसोदियों के यहां नौकरी न करुंगा"

महाराणा प्रताप ने भी कहा कि "आज के बाद मैं भी शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूंगा"

बहन का बेटा होने की खातिर महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल को क्षमा किया

लेकिन महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल झाला की देलवाड़ा की जागीर बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को दे दी | मनमनदास राठौड़ जयमल राठौड़ के पौत्र व मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे | महाराणा प्रताप ने ये जागीर मनमनदास राठौड़ को उनके पिता के जीवित रहते दी थी |

(1614 ई. में शत्रुसाल झाला मेवाड़ की तरफ से लड़ते हुए गोगुन्दा में वीरगति को प्राप्त हुए)

* अगले भाग में राजनगर व कनेचण के युद्धों के बारे में लिखा जाएगा


:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)