Saturday, 23 September 2017

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 96 (अन्तिम भाग)



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 160

"महाराणा प्रताप के इतिहास का अन्तिम भाग"

"महाराणा प्रताप से सम्बन्धित स्थान"


* चित्तौड़गढ़ - यहां महाराणा प्रताप लगभग 17 वर्षों (1550 ई. - 1567 ई.) तक रहे

* कुम्भलगढ़ दुर्ग - महाराणा प्रताप का जन्म स्थान व युद्ध स्थली | महाराणा प्रताप इस दुर्ग में 4-5 युद्ध लड़े, जिनमें से एक को छोड़कर सभी में विजयी हुए | महाराणा ने यहां हुसैन कुली खान व अब्दुल्ला खान को पराजित किया था |

* हमीरसर/हमेरपाल/हमीरपाल तालाब - कुम्भलगढ़ के पास स्थित इस तालाब पर महाराणा प्रताप ने दिवेर विजय के बाद अधिकार किया

* हल्दीघाटी - राजसमन्द जिले में स्थित युद्ध स्थली | यहां हल्दीघाटी म्यूजियम भी है | 1985 ई. में यहां तलवारों का ज़खीरा मिला |

* हल्दीघाटी दर्रा - इसी दर्रे में से महाराणा प्रताप श्वेत अश्व चेतक पर सवार होकर अपनी सेना सहित हल्दीघाटी युद्ध के लिए निकले थे |

* आवरगढ़ :- महाराणा प्रताप द्वारा हल्दीघाटी युद्ध के बाद दो वर्षों तक आवरगढ़ को राजधानी बनाई गई | आवरगढ़ मेवाड़ का सबसे विकट व सुरक्षित पहाड़ी स्थान है, जहां कभी शत्रु सेना नहीं पहुंच सकी | यहां महाराणा प्रताप, उनके सैनिकों के रहने के कई खण्डहर मौजूद हैं | सभा का स्थान पहाड़ी के ऊपरी भाग पर है, जहां चबूतरा बना है | इस पहाड़ी से लगभग 20 मील तक निगरानी रखी जा सकती थी |

* दिवेर - राजसमन्द जिले में स्थित युद्ध स्थली

* मचीन्द - कुंवर अमरसिंह का जन्म स्थान | यहां एक काफी लम्बी गुफा है, जो महाराणा प्रताप संकट के समय एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए प्रयोग करते थे |

* मोती महल - उदयपुर जिले में स्थित | इसका निर्माण महाराणा उदयसिंह ने करवाया | ये महाराणा प्रताप का निवास स्थान था |

* चोर बावड़ी गांव - उदयपुर-गोगुन्दा के बीच स्थित इस गांव का निर्माण जसवन्त सिंह देवड़ा ने किया | ये महाराणा प्रताप का साथ देने सिरोही से मेवाड़ आए थे | महाराणा ने इस गांव में कुछ समय बिताया और यहां एक बावड़ी बनवाई | इस बावड़ी को दासियों को समर्पित करते हुए इसका नाम "दासियों की बावड़ी" रखा गया |

* छापली गांव - यहां महाराणा प्रताप ने छपामार युद्ध से मुगलों को पराजित किया | इसमें स्थानीय लोग भी महाराणा की तरफ से लड़े, तब से यह स्थान छापली रणभूमि के नाम ये विख्यात है | यहां महाराणा प्रताप का स्मारक स्थित है |

* मेवा का मथारा - दिवेर विजय का स्मारक

* उभयेश्वर महादेव मन्दिर

* चामुण्डा माता का मन्दिर (चावण्ड) - महाराणा प्रताप ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था

* एकलिंग जी का मन्दिर (नाथद्वारा)

* बदराणा - इस गांव का नाम महाराणा प्रताप ने झाला मान/बींदा की याद में बिदराणा रखा, जो कालान्तर में बदराणा हो गया | इस गांव में महाराणा प्रताप ने हरिहर मन्दिर का निर्माण करवाया |

* कोल्यारी - महाराणा प्रताप द्वारा स्थापित प्राथमिक उपचार केन्द्र

* रकमगढ़ की छापर (राजसमन्द)

* गोगुन्दा - गोगुन्दा में महाराणा प्रताप कुछ वर्षों तक रहे | यहां 4 बार मुगलों ने अधिकार किया व चार बार महाराणा प्रताप ने शाही फौज को शिकस्त दी | यहां महाराणा उदयसिंह का देहान्त हुआ | यहां स्थित महादेव जी की बावड़ी में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ | गोगुन्दा के राजमहल वर्तमान में राज राणा का निवास स्थान है |

* मनकियावास - महाराणा प्रताप ने दिवेर के युद्ध की रणनीति गोमती चौराहा से 3 किमी. व आमेट से 15 किमी. दूर मनकियावास के जंगलों में तैयार की | जंगली बिलावों की अधिकता के कारण इस गांव का नाम मनकियावास पड़ा | आत्मसुरक्षा के साथ ही आमेट, देवगढ़, रुपनगर व आसपास के ठिकानों से मदद पाने की नजर से भी यह स्थान उपयुक्त था | यहां से दिवेर की दूरी भी कम है | यहां बरगद के पेड़ के नीचे स्थित गुफा में रहते हुए महाराणा प्रताप गुप्त सुचनाएं एकत्रित करते थे |

* मोही - यहां कई बार महाराणा प्रताप व मुगलों के बीच युद्ध हुए

* मदारिया - यहां भी कई बार महाराणा प्रताप व मुगलों के बीच युद्ध हुए

* रामा - मुगल फौज ने इस गांव में महाराणा प्रताप की खोज की, लेकिन महाराणा नहीं मिले

* लोसिंग - हल्दीघाटी युद्ध के लिए प्रस्थान करते वक्त महाराणा प्रताप ने यहां पड़ाव डाला था

* मायरा की गुफा - उदयपुर से 30 किमी. दूर मोड़ी (गोगुन्दा) में स्थित | इस गुफा में प्रवेश के 3 मार्ग हैं | इस गुफा की खासियत ये है कि बाहर से देखने पर लगता है जैसे अन्दर कोई रास्ता नहीं है, पर जैसे-जैसे अन्दर जाते हैं रास्ता निकलता जाता है | गुफा में माँ हिंगलाज का प्राचीन स्थान है | यहां वो स्थान भी है जहां स्वामिभक्त चेतक को बांधा जाता था | यहां महाराणा प्रताप का रसोईघर भी है | इस गुफा की पहाड़ी से 10-12 मील दूर खड़ा कोई व्यक्ति दिखाई दे जाता था, पर 10-12 कदम दूर खड़ा व्यक्ति भी इस गुफा को नहीं देख पाता |

* जावर :- यहां जावरमाला की गुफा है, जिसमें महाराणा प्रताप कुछ समय रहे थे |

* आहोर व रोहेड़ा गांव :- इन गांवों में महाराणा प्रताप द्वारा निर्मित महल (छोटे मकान) हैं, जो अब तक मौजूद हैं |

* मायरा स्थित शस्त्रागार - इस शस्त्रागार के प्रधान हकीम खान सूर थे

* चावण्ड - मेवाड़ की राजधानी | यहां महाराणा प्रताप 12 वर्षों (1585 ई. - 1597 ई.) तक रहे

* बांडोली - महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार स्थल

* अन्य स्थान - राणा खेत, राणा कड़ा, राणा गुफा, राणा का ढाणा, गौरी धाम, पंच महुआ, जोगमंडी, भीमगढ़, गोकुलगढ़, हाथीभाटा, कमेरी, धमकी मोड़ी, घोड़ाघाटी

Tanveer Singh Sarangdevot


* अगले भाग से महाराणा अमरसिंह जी का इतिहास लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 95



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 159

* वे घटनायें, जिनमें महाराणा प्रताप के नाम ने प्रेरणा का काम किया :-


"महाराजा मानसिंह द्वारा महाराणा का उदाहरण देना"

एक समय जोधपुर में अंग्रेज सरकार के खिलाफ बहुत उपद्रव होने लगे, तो अंग्रेजों की एक पलटन जोधपुर भेजी गई

जोधपुर महाराजा मानसिंह ने अपने सर्दारों से सलाह की, तो सर्दारों ने अंग्रेजी फौज को प्रबल बताया

कुचामन ठाकुर ने कहा "प्रबल हुकूमत से बगावत करना ठीक नहीं होगा महाराज साहब | मेवाड़ के महाराणा प्रताप लड़े थे बादशाह से, तो पैर-पैर पर्वतों में फिरे थे"

तब महाराजा मानसिंह ने कुचामन ठाकुर के कथन के विरोध में ये दोहा फर्माया :-

"गिरपुर देस गमाड़,
भमिया पग-पग भाखरां |
सह अँजसै मेवाड़,
सह अँजसै सिसोदिया ||"

अर्थात्

अपने पर्वत, नगर और देश गमाकर पैदल ही पर्वतों में घूमते रहे, पर महाराणा ने अपने धर्म की रक्षा की, जिससे आज मेवाड़ का देश गर्व करता है व सिसोदिया जाति घमंड करती है |

"बाजीराव पेशवा का मेवाड़ आगमन"

आधे हिन्दुस्तान पर मराठाओं का ध्वज फहराने वाले बाजीराव पेशवा का जब मेवाड़ आगमन हुआ, तब महाराणा जगतसिंह (महाराणा प्रताप के प्रपौत्र) ने बाजीराव को अपने साथ सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया

तब बाजीराव पेशवा ने ये कहते हुए मना कर दिया कि "ये सिंहासन महाराणा प्रताप जैसे योद्धाओं की धरोहर है, यहाँ हम नहीं बैठ सकते हैं"

"महाराणा फतेहसिंह द्वारा दिल्ली दरबार में न जाना"

1903 ई. में लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में सभी राजाओं के साथ मेवाड़ के महाराणा का जाना राजस्थान के जागीरदार क्रान्तिकारियों को अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए उन्हें रोकने के लिए शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूरसिंह ने ठाकुर करण सिंह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिलकर महाराणा फतेहसिंह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ को दी | केसरी सिंह बारहठ ने "चेतावनी रा चुंग्ट्या" नामक सौरठे रचे जिन्हें पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुए और दिल्ली दरबार में न जाने का निश्चय किया | वे दिल्ली आने के बावजूद समारोह में शामिल नहीं हुए |

इस रचना में केसरी सिंह बारहठ ने बार-बार महाराणा प्रताप का जिक्र किया व महाराणा फतेहसिंह के सोये हुए स्वाभिमान को जगाया |

"कर्नाटक में एकीकरण"

कर्नाटक के नेता कर्नाटक कुल पुरोहित आलूर वेंकटराव ने कर्नाटक के एकीकरण की लड़ाई में महाराणा प्रताप के आदर्श को अपनाया | इस बात को उन्होंने अपने वक्तव्यों व लेखों में प्रकट किया व लोगों में स्वतंत्रता की भावना जगाई |

"केसरी सिंह बारहठ द्वारा पुत्र का नामकरण"

मेवाड़ के क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ महाराणा प्रताप के विचारों व स्वाभिमान से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'प्रताप सिंह बारहठ' रख दिया |

"प्रताप पत्रिका का प्रकाशन"

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी महाराणा प्रताप के परम भक्त थे | उन्होंने अपने राष्ट्रीय पत्र 'प्रताप' का नाम भी महाराणा प्रताप की पुण्य स्मृति में ही रखा |

* अगला भाग महाराणा प्रताप के इतिहास का अन्तिम भाग होगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 94



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 158

* अंग्रेज इतिहासकार विन्सेट स्मिथ अपनी किताब 'दी ग्रेट मुगल - अकबर' में लिखता है

"राणा प्रताप पर हमला करने की कोई एक खास वजह लिखना जरुरी नहीं है, उसकी देशभक्ति ही उसका गुनाह था | सभी राजा-महाराजाओं में केवल राणा की आजादी अकबर से सहन नहीं हो रही थी | राणा को वह अन्य राजाओं की तरह झुकाने में असफल हुआ, तो अकबर ने उसे तोड़ने की कोशिश की | हल्दीघाटी युद्ध के जरिए अकबर राणा व उसके साम्राज्य को पूर्ण रुप से नष्ट करना चाहता था | पर इस अभियान से अकबर को घोर निराशा हुई, क्योंकि वह राणा के दम्भ को कुचल नहीं पाया था | अकबर राणा की मृत्यु चाहता था, पर राणा भी अपने जीवन का बलिदान करने में पीछे नहीं था | राणा मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध बनाकर अपने रक्त को दूषित नहीं करना चाहता था | बहुत पीड़ा सहन करने के बाद राणा सफल हुआ और अकबर असफल"

* अबुल फजल लिखता है "शहंशाह जो फरमान तकरीबन पूरे हिन्दुस्तान में जारी करते थे, वो फरमान राणा कीका नहीं मानता था"

* अंग्रेज इतिहासकार हैरिस लिखता है

"यद्यपि आगरे का नया शहर बसाने में अकबर का ध्यान लग रहा था, तो भी राज्य की वह तृषा, जो कि उसकी तख्तनशीनी के शुरु के सालों में नज़र आई थी, न बुझी | हिन्दुस्तान के एक राजा का हाल सुनकर, जो कि अकलमन्दी और दिलेरी के वास्ते मशहूर था | जिसका इलाका बादशाह की राजधानी से सिर्फ बारह मंजिल के फासिले पर था, उसको बादशाह ने फौरन फ़तह करने का इरादा किया | खासकर इस वजह से कि वह इलाका उसके मौरुसी राज्य और नये फ़तह किए गए मुल्क के बीच में था | इस राजा का नाम राणा प्रताप था | राणा का खिताब उसके खानदान के सब राजाओं को हिन्दुस्तान के पुराने दस्तूर के मुवाफ़िक दिया जाता था | उसकी मदद करने वाला अगर कोई दूसरा राजा होता, तो वह अपने मुल्क चित्तौड़ की आज़ादी फिर हासिल कर लेता | तो भी उसने बड़े दरजे की कोशिश की, जो कि इस मुल्क की तवारिख में हमेशा याद रहेगी"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"मैं उन पहाड़ियों पर चढ़ा हूँ, उन नालों को पार किया है और उन मैदानों में घूमा हूँ, जो प्रताप के गौरवमय रंगमंच में पड़ते हैं | मैंने इनके वंशजों से पूछताछ की, तो वे कई बार इनकी गाथा सुनाते-सुनाते रो पड़ते थे"

* अंग्रेज इतिहासकार विन्सेट स्मिथ लिखता है

"प्रताप को उत्तराधिकार में एक तेजस्वी वंश का यश और उपाधियां प्राप्त हुई थीं, लेकिन न उसके पास राजधानी थी और न साधन"

* अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ लिखता है

"वास्तव में प्रताप एेसा व्यक्तिवादी विद्रोही था, जो अकबर के महान साम्राज्य के सपने को नष्ट करने में जुटा हुआ था | वह अपने राज्य की स्वतंत्रता को अपने से चिपटाए हुए था | शाही दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान के वादे को उसने तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया था | जो दूसरे राज्यों ने किया था, उसका कोई अनुकूल प्रभाव प्रताप पर नहीं पड़ा | उसने मेवाड़ की स्वतंत्रता को अपने हृदय से लगाए रखने, जब तक बन पड़े उसकी रक्षा करने और फिर उसकी रक्षा के लिए जान देने की ठान रखी थी"

* एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है

"जिस शान के साथ दिल्ली का बादशाह अपने बड़े से तख्त पर बैठकर हिन्दुस्तान पर हुकूमत करता था, ठीक उसी शान के साथ मेवाड़ का राणा कीका जंगलों में पत्थर पर बैठकर उसी हुकूमत का विरोध करता था"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"वर्ष के उपरान्त वर्ष व्यतीत होते गए | हर वर्ष प्रताप के साधन कम हो जाते थे और उसकी विपत्तियां बढ़ जाती थीं | मनोभावना को आकाश जीतना ऊँचा उठा देने वाले छन्दों द्वारा देशप्रेमी प्रताप की प्रशंसा करने में राजा और सामन्त, हिन्दु और तुर्क सबमें होड़ लगी रहती थी"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"जो घाटी उदयपुर की रक्षा करती है, उसकी चोटी से प्रताप चित्तौड़ के उन कंगूरों को देखता था, जिनसे उसे सदा अनजान रहना था"

* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"मुगल सम्राट अकबर की स्मृति के लिए यह सम्मान की ही बात है कि उसका नाम प्रताप के साथ अनेक परम्परागत पद्य-पंक्तियों में अंकित है"

* अंग्रेज इतिहासकार फ्रेडरिक लिखता है

"दरबारी इतिहासकार चाहे जो कहें, प्रताप को विद्रोही व दुराग्रही जमींदार नहीं माना जाना चाहिए | जो भूमि उसके अधीन थी, वो स्वयं उसकी थी | संग्राम में उसके साथ ऐसे सामन्त जाते थे, जिनसे पीढियों से सम्बन्ध था | उसे समस्त राजपूत अपना विधिवत स्वाभाविक स्वामी स्वीकार करते थे"

* अगले भाग में उन घटनाओं का उल्लेख होगा, जिनमें महाराणा प्रताप के नाम ने प्रेरणा का काम किया

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 93



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 157

"वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का परलोकगमन"
 


19 जनवरी, 1597 ई.


* महाराणा प्रताप के समक्ष सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत व अन्य सभी सामन्तों ने बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर कहा कि "हम सभी कुंवर अमरसिंह द्वारा लड़ी जाने वाली स्वाधीनता की इस लड़ाई में अन्त तक उनके साथ रहेंगे"

शपथ सुनने के बाद चावण्ड में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का देहान्त हुआ

चावण्ड से डेढ मील दूर बांडोली गांव में महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार हुआ

टूट गया बल हो गए हताश आँखें हैं नम,
दुर्ग से फहराता वो ध्वज कहे समय है कम |
पूतों के बलिदानों को यूँ देख रोता है मन,
जय-जय जिसकी होती थी जयकार वो मेवाड़ है नम

बांडोली में महाराणा प्रताप की 8 खम्भों की छतरी बनी हुई है

महाराणा प्रताप की छतरी पर उनकी एक बहिन की छतरी का पत्थर भी था, जिस पर 1601 ई. का शिलालेख खुदा था

* महाराणा प्रताप ने 24 वर्ष, 10 माह, 26 दिन तक शासन किया

* अबुल फजल लिखता है

"राणा कीका की मौत हो गई | ऐसा लगता है कि राणा के शरारती बेटे अमरा (अमरसिंह) ने राणा को खाने में ज़हर देकर मार डाला | वह (प्रताप) कमान (धनुष) को मोड़ते वक्त ज़ख्मी भी हुआ था"

(या तो अबुल फजल ने किसी अफवाह के चलते ये बात लिखी या फिर महाराणा प्रताप से नाराजगी के सबब से |

इस बात को गलत साबित करने के लिए पहला तर्क ये है कि कुंवर अमरसिंह बड़े ही पितृभक्त थे, इसलिए वे एेसा नीच काम नहीं कर सकते थे | मेवाड़ में एक रिवाज था कि उत्तराधिकारी कभी भी पिता की चिता को अग्नि नहीं देता था | महाराणा अमरसिंह मेवाड़ के पहले एेसे शासक थे, जिन्होंने खुद अपने पिता की चिता को अग्नि दी और सदियों से चला आ रहा ये नियम तोड़ा | ये महाराणा अमरसिंह की पितृभक्ति ही थी |

दूसरा तर्क ये है कि महाराणा अमरसिंह ने राजगद्दी पर बैठकर अय्याशी करने के बजाय 18 वर्षों तक जंगलों में रहकर मुगलों से कईं युद्ध लड़े | भला मेवाड़ के इस काँटों से भरे राजसिंहासन के लिए कौन अपने पिता को मारकर राज करना चाहेगा)

* (अक्सर एक बात सुनी जाती है कि महाराणा प्रताप के देहान्त पर अकबर भी रोया था | कुछ लोग इसे झूठी बात कहते हैं, लेकिन ये एक सत्य है)

अकबर का दरबार लगा हुआ था, तभी महाराणा प्रताप के देहान्त का समाचार वहां पहुंचा

वहां खड़े सभी मुगल प्रसन्न हुए, पर दरबार में उपस्थित राजपूतों की आंखें भर आई

उन्हीं राजपूतों में उस वक्त कवि दुरसा आढ़ा भी थे, जिन्होंने उस वक्त अकबर के जो हाव-भाव देखे, उसे अपने दोहों के माध्यम से लिखा -

"अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी |
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी |
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली |
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली |

गुहिल राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी |
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी |"

अर्थात्

"राणा ने अपने घोडों पर दाग नहीं लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था), उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नहीं | जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया | तुम्हारा रौब दुनिया पर ग़ालिब था | तुम कभी नोरोजे के जलसे में नहीं गये, न बादशाह के डेरों में गए | न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी | (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे)
हे प्रतापसी ! तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गुहिल राणा जीत गया"

* महाराणा प्रताप के देहान्त के कुछ वर्षों बाद लिखे गए ग्रन्थ 'राणा रासौ' में लिखा है

"राणा प्रताप सोनगिरी रानी से उत्पन्न हुआ और संसार में अद्वितीय वीर माना गया | वह दानी एवं युद्ध में शत्रुओं को दलने वाला था | प्रतापसिंह अपना प्रताप स्वयं फैलाने वाला था | उसमें अक्षुण्ण रजोगुण विद्यमान था | इस संसार में जैसा राणा प्रताप हुआ है, वैसा ना अब तक कोई हुआ और न कभी होगा | राणा प्रताप युधिष्ठिर के समान सत्यवक्ता, दधीचि के समान उदारवृद्धि, दशरथ के समान पुरुषार्थी, भीम के समान युद्ध करने वाला, रावण के समान स्वाभिमानी एवं राम के समान प्रणपालक था | वह भारतवर्ष में विक्रम, भोज, कर्ण व सूर्य स्वरुप माना जाता है | राजागण उसको अपना शिरोमणि मानते थे | प्रताप नरेश हिन्दुओं का अडिग ताज था | हे प्रताप तुम युग-युग जीवित रहो | तुम्हारे स्मरण मात्र से पाप दूर हों | तुम भगवान एकलिंग के द्वितीय अंग माने जाते रहो, हिन्दुओं के पिता बने रहो"

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के बारे में समकालीन लेखकों व विभिन्न इतिहासकारों के मत के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 92



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 156

1592 ई.


* इस वर्ष 5 जनवरी को अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र खुर्रम का जन्म हुआ, जो बाद में शाहजहां के नाम से मशहूर हुआ

* चावण्ड चित्रशैली के प्रसिद्ध चित्रकार नसीरुद्दीन की कृति "ढोलामारु" (1592 ई.) है, जो नई दिल्ली संग्रहालय में सुरक्षित है | नसीरुद्दीन महाराणा प्रताप के प्रसिद्ध दरबारी चित्रकार थे |
नसीरुद्दीन (बायें से पहले) व चक्रपाणि (बायें से तीसरे)

1593 ई.

* बांसवाड़ा के महारावत तेजसिंह का देहान्त हुआ | रावत भानुसिंह बांसवाड़ा की गद्दी पर बैठा और मुगलों की ताबेदारी कुबूल की |

1594 ई.

"डाईलाणा का ताम्रपत्र"

> यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप द्वारा आश्विन शुक्ला 15 संवत् 1651 (1594 ई.) को जारी गया

> इस ताम्रपत्र में गोडवाड क्षेत्र के डाईलाणा गांव में रोहीतास चौधरी को 4 खेत व 1 रहट प्रदान करने का आदेश है

> ताम्रपत्र में इस भूमि का भूमिकर साढ़े 4 कलसी लिखा हुआ है

('कलसी' शब्द नाप के पात्र के लिए प्रयोग हुआ है)

"महाराज शक्तिसिंह का देहान्त"

> भैंसरोडगढ़ दुर्ग में महाराणा प्रताप की मौजूदगी में उनके भाई शक्तिसिंह जी का देहान्त

> शक्तिसिंह जी के संभवत: 17 पुत्र हुए, ये सभी बड़े बहादुर थे

> इनके दो पुत्रों अचलदास व बल्लु से अकबर के शाही दरबार में आगरा के किलेदार रामदास कछवाहा ने कहा कि अपनी-अपनी तलवारें शहंशाह के सामने डालो

दोनों ने बिना किसी खौफ के तलवार डालने से मना किया

महाराणा प्रताप को जब इस घटना कि सूचना मिली, तो उन्होंने अचलदास को अपने पास बुलाकर देसूरी का पट्टा दे दिया

> महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र भाण को भीण्डर की जागीर दी

"राव पत्ता हाडा का दमन"

> खैराड़ नामक स्थान का राव पत्ता हाडा महाराणा प्रताप का आदर नहीं करता था | एक बार वह अपने भाई उदयसिंह के साथ शक्तावतों की गायें खोलने गया, जिन्हें छुड़ाने में शक्तिसिंह जी के पुत्र चतुर्भुज वीरगति को प्राप्त हुए |

> महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र अचलदास को भेजा

अचलदास अपने 4 भाईयों के साथ गए और पानगढ़ दुर्ग को घेर लिया, पर राव पत्ता बच निकला

कुछ समय बाद फिर इनका आमना-सामना हुआ और राव पत्ता मारा गया

1595 ई.


* अकबर की सिन्ध व बलूचिस्तान विजय

* इसी वर्ष सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत का देहान्त हुआ | महाराणा प्रताप के सभी सामन्तों में से इनका साथ सबसे अधिक रहा | ये महाराणा के सबसे करीबी सामन्त रहे | इनकी 9 रानियाँ व 10 पुत्र थे | सबसे बड़े पुत्र जैतसिंह चुण्डावत सलूम्बर के 8वें रावत साहब बने |
रावत कृष्णदास चुण्डावत

1596 ई.

* अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र शहरयार का जन्म हुआ

* ईडर के शासक वीरमदेव राठौड़ की आमेर के महलों में हत्या कर दी गई

महाराणा प्रताप की एक रानी वीरमदेव की बहिन थीं

वीरमदेव की कोई सन्तान नहीं थी | इसलिए इनका भाई कल्याणमल ईडर का शासक बना | कल्याणमल ने मेवाड़ से बगावत की |

दिसम्बर-जनवरी, 1597 ई.

"महाराणा प्रताप की नसों में खिंचाव"


महाराणा प्रताप को सूचना मिली की एक शेर इन्सानों व गाय-भैंसों का शिकार कर रहा है

महाराणा प्रताप शेर का शिकार करने जंगल में पधारे

धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाते वक्त महाराणा की नसों में जबर्दस्त खिंचाव हुआ

महाराणा प्रताप तकरीबन महीने भर तक इस पीड़ा को सहते रहे

वैद्य ने उपचार किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ

राजपूताने की लाज रखने वाले इस महान योद्धा का अन्त निकट जानकर राजपूताने की बड़ी-बड़ी हस्तियों से लेकर मेवाड़ की प्रजा तक हर कोई उनका हालचाल पूछने चावण्ड आया

महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह का हाथ अपने हाथ में लिया और उनसे कहा कि मेवाड़ की स्वाधीनता बरकरार रहनी चाहिये

* अगले भाग में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के देहान्त के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 91



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 155

1591 ई.


* महाराणा प्रताप के सहयोगी ताराचन्द कावड़िया (भामाशाह के भाई) का देहान्त

ताराचन्द ने सादड़ी के बाहर एक बारादरी और बावड़ी बनवाई थी, उसके पास ही ताराचन्द, उनकी 4 पत्नियाँ, 1 खवास, 6 गायनियाँ, 1 गवैया और उस गवैये की पत्नी की मूर्तियाँ पत्थरों पर खुदी हुई हैं |

* इसी वर्ष अकबर ने सिन्ध व उड़ीसा पर विजय प्राप्त की

"राजनगर का युद्ध"

दलेल खां नाम के एक मुगल सिपहसालार ने फौज समेत मेवाड़ पर चढाई की

महाराणा प्रताप ने बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को फौज समेत लड़ने भेजा

मनमनदास जी की उम्र इस समय 34 वर्ष की थी

कुंवर मनमनदास वीर जयमल राठौड़ के पौत्र व ठाकुर मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे

राजनगर के पास दोनों फौजों के बीच लड़ाई हुई

दलेल खां हाथी पर सवार था व कुंवर मनमनदास 'चन्द्रभाण' नाम के घोड़े पर सवार थे

कुंवर मनमनदास ने भाला फेंका, जिससे दलेल खां हाथी से गिरकर मर गया

मुगल फौज के पांव उखड़ गए और कुंवर मनमनदास विजयी होकर महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत हुए, तो महाराणा ने कहा कि "तुम्हारा नक्कारा हमेशा हरावल में बजा करेगा"

"कनेचण का युद्ध"

दलेल खां की मौत का बदला लेने के लिए उसके भाई दिलावर खां ने मेवाड़ पर चढाई की

इस बार महाराणा प्रताप ने कुंवर मनमनदास राठौड़ के पुत्रों भंवर दलपति सिंह व भंवर परशुराम को फौज समेत भेजा

कनेचण नामक स्थान पर लड़ाई हुई, जिसमें ये दोनों भाई वीरगति को प्राप्त हुए | दोनों के सिर कट जाने के बाद इनके घोड़े इनके धड़ को लेकर दलपति सिंह के ससुराल शाहपुरा के समीप तसवारिया नाम के गांव में पहुंचे, जहां इनका अन्तिम संस्कार हुआ |

दलपति सिंह की सौलंकिनी रानी उनके साथ सती हुई | दलपति सिंह के वंशज सलूम्बर के छरल्या गांव में हैं |

परशुराम जी अविवाहित थे |

दोनों भाईयों की छतरियां तसवारिया गांव में अब तक मौजूद हैं |

महाराणा प्रताप ने मनमनदास जी के एक पुत्र देवीदास जी को कनेचण की जागीर प्रदान की |

* अगले भाग में महाराज शक्तिसिंह जी, ईडर राव, बांसवाड़ा रावत के देहान्त व महाराणा प्रताप के जख्मी होने  के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 90



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 154

"सूरत की लूट"


महाराणा प्रताप ने सूरत की मुगल छावनियों में लूटमार की और वहां के मुगल सूबेदार से लड़ाई की

महाराणा प्रताप के साथ कुंवर अमरसिंह, भाई शक्तिसिंह व शक्तिसिंह जी के कुछ पुत्र, सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत, कोठारिया रावत पृथ्वीराज चौहान वगैरह बहुत से सर्दार थे

सूबेदार हाथी पर सवार था

महाराणा प्रताप ने भाला फेंका, जिससे सूबेदार तो कत्ल हुआ, पर भाला हाथी के शरीर में घुस गया, जो खींचने पर भी नहीं निकला

तभी कोठारिया के रावत पृथ्वीराज चौहान ने महाराणा का भाला निकाल दिया, इस घटना से प्रसन्न होकर महाराणा प्रताप ने कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया | इसके बाद हर विजयादशमी को महाराणा द्वारा कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया गया |

इस घटना को बांकीदास री ख्यात में कुछ इस तरह लिखा गया है -

"सहर सूरत में राणो प्रताप गोसरे हियो विखा में उमरावा कुवरा समेत सूरत रा सूबेदार नू मार घोड़ा चलाया राणा री हाथ री बरछी सू सूबेदार रा अग रही कोठारिया रै राव जायनै आणी ऊ दिन दसरावा रो गहणा समेत सिरपाव राणोजी कोठारिया रा धणी नू दियो | जिणसू हर दसरावै राणोजी दसरावा रो सिरपाव गहणा समेत कोठारिया रा राव नू वगसै"

1589 ई.


* आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा की मृत्यु हुई

राजा मानसिंह आमेर का शासक बना

* इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन का देहान्त हुआ

अबुल फजल लिखता है "उस जैसा गवैया एक हजार सालों में भी नहीं हुआ"

* इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल की मृत्यु हुई

* इसी वर्ष अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र परवेज़ का जन्म हुआ, जिसने बाद में महाराणा अमरसिंह से लड़ाईंया लड़ीं

1590 ई.

* महाराणा प्रताप के साथ जंगलों में रहकर उनके हर सुख-दुख में साथ रहने वाली मेवाड़ की महारानी अजबदे बाई का देहान्त

"महाराणा प्रताप व शत्रुसाल झाला में अनबन"


महाराणा प्रताप के बहनोई देलवाड़ा के मानसिंह झाला का पुत्र शत्रुसाल उग्र स्वभाव का था और एक भोजन समारोह में उसकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई

शत्रुसाल उठ कर जाने लगा कि तभी महाराणा ने उसके अंगरखे का दामन पकड़कर रोकना चाहा

शत्रुसाल ने क्रोध में आकर पेशकब्ज़ से अपने अंगरखे का दामन काट डाला

शत्रुसाल ने महाराणा से कहा कि "आज के बाद मैं सिसोदियों के यहां नौकरी न करुंगा"

महाराणा प्रताप ने भी कहा कि "आज के बाद मैं भी शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूंगा"

बहन का बेटा होने की खातिर महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल को क्षमा किया

लेकिन महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल झाला की देलवाड़ा की जागीर बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को दे दी | मनमनदास राठौड़ जयमल राठौड़ के पौत्र व मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे | महाराणा प्रताप ने ये जागीर मनमनदास राठौड़ को उनके पिता के जीवित रहते दी थी |

(1614 ई. में शत्रुसाल झाला मेवाड़ की तरफ से लड़ते हुए गोगुन्दा में वीरगति को प्राप्त हुए)

* अगले भाग में राजनगर व कनेचण के युद्धों के बारे में लिखा जाएगा


:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 89



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 153

सितम्बर, 1588 ई.

"बांधण का ताम्रपत्र"


> यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप द्वारा जारी भामाशाह कावडिया द्वारा लिखित है

> आश्विन कृष्णा 7 संवत् 1645 को यह ताम्रपत्र प्रदान किया गया

> ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा प्रताप ने आयस आणंदनाथ को सीदरी के गांव बांधण में 4 हल भूमि प्रदान की

24 अक्टूबर, 1588 ई.

"महाराणा प्रताप की जहांजपुर विजय"

> महाराणा प्रताप ने जहांजपुर पर हमला किया व विजयी हुए

> जहांजपुर में महाराणा के भाई जगमाल के वंशज रहा करते थे | साथ ही यहां मुगल चौकी भी थी, जो महाराणा द्वारा हटा दी गई |

"पडेर का ताम्रपत्र"

> यह ताम्रपत्र जहांजपुर विजय के उपलक्ष्य में महाराणा प्रताप द्वारा जारी व भामाशाह कावडिया द्वारा लिखित है

> यह ताम्रपत्र कार्तिक शुक्ला 15 संवत् 1645 को प्रदान किया गया

> महाराणा प्रताप ने जहांजपुर परगने के पडेर गांव में 11 हल भूमि तिवाड़ी (ब्राह्मण) सादुलनाथ, कानागोपाल को प्रदान की

(उस समय एक हल भूमि लगभग तीन बीघा के बराबर होती थी)

> यह गांव पहले महाराणा उदयसिंह जी द्वारा दान किया गया था, लेकिन इस जगह का पुनर्नवीकरण महाराणा प्रताप के समय हुआ

"अकबर द्वारा महाराणा के विरुद्ध संघर्ष विराम"

> चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ के अलावा समस्त मेवाड़ पर महाराणा प्रताप ने अधिकार कर लिया

गौर से देखा जाए तो चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ महाराणा उदयसिंह के समय ही मुगलों के हाथ लग चुके थे | महाराणा प्रताप के शासनकाल में जितना मुगलों ने छीना, उसे फिर से प्राप्त करने में महाराणा प्रताप सौ फीसदी सफल हुए |

> जिस समय अकबर के प्रकोप से बड़े-बड़े राजा बिना लड़े आत्मसमर्पण कर चुके थे, उस समय जंगलों में रहने वाले एक शख्स ने न सिर्फ समस्त मुगल साम्राज्य को चुनौती दी, बल्कि अपने से सौ गुना शक्तिशाली मुगल सल्तनत को इस तरह घुटनों पर झुका दिया कि महाराणा के जीते जी फिर कभी अकबर ने मेवाड़ पर हमला नहीं किया

अनगिनत युद्ध हारकर,
खुद अकबर ने किया विराम |
और कहते हैं कुछ अर्द्ध ज्ञानी,
हार गया राणा पर था बड़ा महान ||

> अकबर ने संघर्ष विराम कर दिया, लेकिन महाराणा प्रताप ने इस संघर्ष को जारी रखा और मेवाड़ के बाहर जो मुगल थाने थे, उनको लूटने का काम किया व मालवा, गुजरात, अजमेर के इलाकों में लूटमार की

* अगले भाग में महारानी अजबदे बाई के देहान्त, महाराणा प्रताप द्वारा सूरत की मुगल छावनियों में लूटमार व कुछ अन्य घटनाओं के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 88



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 152

"भील जाति का सहयोग"

* एक बार महाराणा प्रताप के कुछ पुत्र शत्रुओं के पंजे में पहुंच गए, परन्तु कावा के स्वामिभक्त भीलों ने उनको बचा लिया

भील महाराणा प्रताप के बच्चों को टोकरों में ले गए व उनकी देखभाल की

जावर व चावण्ड के घने जंगल के वृक्षों पर लोहे के बड़े-बड़े कीले अब तक गढ़े हुए मिलते हैं | इन कीलों की बेतों के बड़े-बड़े टोकरे टांग कर उनमें महाराणा के बच्चों को छिपाकर भील महाराणा की सहायता करते थे |

पूंजा भील के नेतृत्व में भीलों ने महाराणा प्रताप का अन्त तक साथ दिया |

"जीत लिया भीलों का मन,
व्यक्तित्व पर ऐसा था राणा |
पूंजा भील था साथ खड़ा,
राणा ने कहा अब तू भी 'राणा' ||"


1586 ई.

* अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल का देहान्त हुआ |
बीरबल 8000 मुगलों समेत अफगानों द्वारा मारा गया |

* इसी वर्ष अकबर ने कश्मीर पर फतह पाई

1587 ई.

* इस वर्ष अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र खुसरो का जन्म हुआ

* इसी वर्ष महाराणा प्रताप के रिश्तेदार जसवन्त सोनगरा (महाराणा के मामा मानसिंह सोनगरा के पुत्र), जो कि मेवाड़ में ही रह रहे थे, उनको मारवाड़ के मोटा राजा उदयसिंह ने अपने पास बुलाया और 30 गाँवों की जागीर दी |

"महाराणा प्रताप का आमेर पर हमला"


* महाराणा प्रताप ने आमेर के जगन्नाथ कछवाहा, मानसिंह वगैरह को सबक सिखाने के लिए कुंवर अमरसिंह व भामाशाह को आमेर भेजा

कुंवर अमरसिंह व भामाशाह ने आमेर के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर तहस-नहस कर दिया

मालपुरा के अतिरिक्त चाटसू व लालसोटि नगरों पर भी कुंवर अमरसिंह के आक्रमण की बात अमरसार ग्रन्थ में लिखी गई है

"गुजरात अभियान"


* कुंवर अमरसिंह ने गुजरात के किसी शाही प्रदेश पर हमला किया व 70 हजार का धन दण्डस्वरुप (लूट) वसूल किए

"मुगल थानों पर हमले"


* जगन्नाथ कछवाहा ने कश्मीर जाने से पहले मेवाड़ में कई जगह मुगल थाने तैनात कर दिये थे

महाराणा प्रताप ने सभी मुगल थानों पर हमले किए व विजयी हुए

1587-88 ई.

* इन्हीं दिनों में महाराणा प्रताप के समकालीन कवि हेमरतन सूरि ने महाराणा प्रताप द्वारा लगातार संघर्ष करने के बारे में लिखा

"प्रतपई दिन-दिन अधिक प्रताप"

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा जारी किए गए पडेर व बांधण के ताम्रपत्रों के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 87



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 151

1585 ई.

* सूरखण्ड का शिलालेख :-
इस वर्ष का एक शिलालेख अब तक उदयपुर के विक्टोरिया हॉल में मौजूद है, जिसका नाम "सूरखण्ड का शिलालेख" है | ये शिलालेख महाराणा प्रताप के देहान्त के बाद किसी ने महाराणा द्वारा जारी किया हुआ लिखकर इसे झूठा ही प्रसिद्ध कर दिया | सूरखण्ड के शिलालेख की भाषा भी महाराणा प्रताप के समय की नहीं लगती, इसलिए उस शिलालेख का वर्णन यहां नहीं किया जा रहा है |

* इसी वर्ष बूंदी के राव सुर्जन हाडा का देहान्त हुआ

1586 ई.

"बांसवाड़ा के उत्तराधिकार संघर्ष में महाराणा प्रताप द्वारा उग्रसेन का व अकबर द्वारा मानसिंह चौहान का पक्ष लेना"

> 1583 ई. में महाराणा प्रताप ने कूटनीति से ठाकुर मानसिंह चौहान से बांसवाड़े का आधा राज्य लेकर उग्रसेन को दिलवाया था, परन्तु आधा राज्य अब भी मानसिंह चौहान के हाथ में था जो कि बांसवाड़ा पर धोखे से अधिकार जमा कर बैठा था |

> मुहणौत नैणसी द्वारा लिखित एक घटना के अनुसार मारवाड़ के राव चन्द्रसेन के पुत्र आसकर्ण (महाराणा प्रताप के भाणजे) के देहान्त के बाद आसकर्ण की विधवा रानी का बांसवाड़ा के महलों में आना हुआ, तो मानसिंह ने उन पर कुदृष्टि डाली, जिससे उन्होंने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली |

> महाराणा प्रताप ने इस घटना से क्रोधित होकर डूंगरपुर रावल साहसमल के साथ मिलकर उग्रसेन को 1500 घुड़सवारों की फौजी मदद देकर मानसिंह चौहान पर हमला करने भेजा |

मानसिंह चौहान की फौज बुरी तरह पराजित हुई और खुद मानसिंह बांसवाड़ा के महलों की खिड़की से निकलकर भाग गया |

उग्रसेन के हमले से मानसिंह का सामन्त चावंडा भोजा सामरोत मारा गया व बांसवाड़ा पर उग्रसेन का अधिकार हुआ

उग्रसेन महाराणा प्रताप का सामन्त था, इसलिए बांसवाड़ा पर महाराणा प्रताप का पूर्णत: अधिकार हुआ

> अब मानसिंह चौहान ने मुगल बादशाह अकबर की शरण ली | अकबर जानता था कि अप्रत्यक्ष रुप से महाराणा प्रताप इस घटना से जुड़ चुके हैं, इसलिए उसने मानसिंह चौहान और मुगल सेनापति मिर्जा शाहरुख को मुगल फौज के साथ बांसवाड़े पर कब्जा करने भेजा |

> महाराणा प्रताप को पता चला, तो उन्होंने उग्रसेन व साहसमल के साथ मिलकर बादशाही मुल्क लूटना शुरु कर दिया | महाराणा मालवा की मुगल छावनियाँ लूटकर मेवाड़ पधारे |

मिर्जा शाहरुख व मानसिंह चौहान मालवा पहुंचे, जहां उग्रसेन नहीं मिले | फिर मुगल फौज बांसवाड़े की तरफ रवाना हुई |

> महाराणा प्रताप ने उग्रसेन को फौजी मदद देकर मिर्जा की फौज से लड़ने भेजा

> भीलवण नामक स्थान पर उग्रसेन व मानसिंह के बीच लड़ाई हुई, जिसमें मानसिंह चौहान व मुगल फौज पराजित हुई | इस लड़ाई में दोनों तरफ से कुल 400 सैनिक मारे गए |

> कुछ समय बाद उग्रसेन ने गांगा गौड़ को मानसिंह के डेरे में भेजा, जहां गांगा गौड़ ने मानसिंह का वध कर दिया |

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा आमेर व जहांजपुर पर किए गए सफल आक्रमणों के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 86



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 150

1585 ई.



* इसी वर्ष महाराणा प्रताप और अकबर ने अपनी-अपनी राजधानी बदली :-

* अकबर ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाई

"चावण्ड"

* महाराणा प्रताप ने उदयपुर में स्थित चावण्ड को मेवाड़ की राजधानी बनाई
चावण्ड का प्रवेश द्वार

* महाराणा प्रताप अपने जीवन के अन्तिम 12 वर्षों तक चावण्ड में ही रहे

"ये अटल प्रताप प्रतिज्ञा थी,
जिसने रजपूती धर्म निभाया |
पत्थर को तोड़ पहाड़ों में,
मेवाड़ नया निर्माण किया ||"

चावण्ड स्थित महाराणा प्रताप की गुफा

* इसी वर्ष महाराणा प्रताप ने चावण्ड में छप्पन के राठौड़ों के विद्रोह को दबाया व उनके सरदार लूणा चावण्डिया राठौड़ को पराजित किया | इस कार्य में रावत कृष्णदास चुण्डावत ने भी महाराणा का साथ दिया |

अन्य राठौड़ जमींदार, जिन्होंने मेवाड़ में रहते हुए भी महाराणा प्रताप की अधीनता स्वीकार न की, उनका भी दमन किया गया

इस तरह महाराणा प्रताप ने छप्पन (56 इलाकों के समूह) पर भी अधिकार कर लिया

* महाराणा प्रताप ने चावण्ड में चामुण्डा माता के पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया
चावण्ड स्थित माँ चामुण्डा मन्दिर

* महाराणा प्रताप ने चावण्ड में 16 पनाहगाह बनवाए

इनमें महल, भवन, चतारों की ओवरी, मन्दिर आदि शामिल है

* चावण्ड के महलों के बारे में इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं
चावण्ड महलों के अवशेष

"महलों के खण्डहर बतलाते हैं कि उनमें विलासिता या वैभव का कोई दिखावा नहीं रखा गया था | इनकी बनावट में ग्रामीण जीवन तथा सुरक्षा के साधनों को प्रधानता दी गई थी | जगह-जगह मोर्चों की सुविधाएँ, निकलकर बचने की व्यवस्था और सादगी पर अधिक बल दिया गया था | ये महल युद्धकालीन स्थापत्य कला के अनूठे उदाहरण हैं"

* महाराणा प्रताप ने चावण्ड में रहकर मेवाड़ के अपराधियों को उचित दण्ड देकर उनकी संख्या में कमी करते हुए मेवाड़ में शान्ति का वातावरण स्थापित किया

* इसी वर्ष नवाब अली खां ने मेवाड़ में लूटमार की

महाराणा प्रताप ने रावत कृष्णदास चुण्डावत को फौज देकर उसका दमन करने भेजा

रावत चुण्डावत ने नवाब अली खां को मारकर उसकी फौज को खदेड़ दिया

* महाराणा प्रताप ने पहाड़ी जमीन में पैदा हो सकने वाली फसलें (कुरी, सामा, जौ) उत्पादन पर जोर दिया

महाराणा ने कूणप जल विधि अपनाई व कृषि से सम्बन्धित एक ग्रन्थ लिखवाया

* महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा में विशाल समारोह का आयोजन किया | इसमें उनका साथ देने वाले वीरों को तथा वीरगति को प्राप्त हो चुके वीरों के उत्तराधिकारियों को पुरस्कार दिये |

महाराणा ने मेवाड़ के वीरान भागों को फिर से बसाने की घोषणा की | पीपली, ढोलन, सघाना, टीकड़ आदि गांव पूरी तरह तहस-नहस हो गए थे, जिन्हें फिर से बसाया गया |

किसानों को नई भूमि दी गई | शीघ्र ही मेवाड़ के वीरान पड़े खेत फसलों से लहलहाने लगे |

महाराणा ने व्यापार व उद्योगों को प्रोत्साहन दिया | मेवाड़ के लोग - स्त्रियां, बच्चे, वृद्ध सभी निर्भय होकर घूमने लगे |

महाराणा अमरसिंह के समय में लिखे गए एक ग्रन्थ 'अमरसार' में लिखा है कि

"महाराणा प्रताप ने अपने राज्य में इतना सुदृढ़ शासन स्थापित कर दिया, कि औरतों और बच्चों को भी किसी का भय नहीं रहा | महाराणा प्रताप के शासनकाल में पाश (डोरी) की विद्यमानता महिलाओं की अलकाओं में ही होती थी | चोरों को पकड़ने के लिए पाश (रस्सी) का प्रयोग नहीं होता था | जन साधारण का उचित और नैतिक आचरण सामान्य बात हो गई थी"

* अगले भाग में बांसवाड़ा के उत्तराधिकार संघर्ष में महाराणा प्रताप द्वारा उग्रसेन का व अकबर द्वारा मानसिंह चौहान का पक्ष लेने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 85


मेवाड़ से भागती हुई मुगल फौज

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 149

1585 ई.
"महाराणा प्रताप का विजय अभियान"


* महाराणा प्रताप गोडवाड़ से निकले और चावण्ड में तैनात मुगलों को मार भगा कर चावण्ड पर अधिकार किया

* महाराणा प्रताप ने दो सैनिक टुकड़ियां बनाई, जिसमें एक का नेतृत्व स्वयं महाराणा ने व दूसरी का नेतृत्व कुंवर अमरसिंह ने किया

"महाराणा प्रताप की उदयपुर विजय"

महाराणा प्रताप ने उदयपुर पर चढाई की

महाराणा के आने की खबर सुनते ही उदयपुर में तैनात मुगल फौज के हौंसले पस्त हो गए और ये फौज बिना लड़े ही भाग निकली

महाराणा प्रताप ने बिना खून खराबे के ही उदयपुर पर अधिकार कर लिया

* महाराणा प्रताप ओवरां गांव में पहुंचे

ओवरां में स्थित शाही थाने पर हमला किया व विजयी हुए

* ओवरां से महाराणा प्रताप जावर पहुंचे

जावर में सीसा व जस्ता की खदानें थी | आर्थिक रुप से समृद्ध होने के कारण इस इलाके पर अक्सर मुगलों की नज़र रहती थी |

महाराणा प्रताप ने जावर के शाही थाने पर हमला किया व विजयी हुए

* कुंवर अमरसिंह ने मोही, मदारिया, आमेट, देवगढ़ वगैरह शाही थानों पर हमले किए व विजयी हुए

* महाराणा प्रताप ने भीमगढ़ मुगल थाने पर हमला किया व विजयी हुए

* पिण्डवाड़ा स्थित शाही थाना 1576 ई. में अकबर ने आमेर के भगवानदास कछवाहा की मदद से लगाया था

महाराणा प्रताप का पिण्डवाड़ा शाही थाने पर हमला व विजय

* महाराणा प्रताप ने फिर से वागड़ पर हमला किया व विजयी हुए

ये वागड़ पर महाराणा की तीसरी विजय थी

(इससे पहले महाराणा प्रताप ने 1555 ई. व 1578 ई. में वागड़ पर विजय प्राप्त की थी)

* महाराणा प्रताप ने खेरवाड़ा, आसपुर व बिजौलिया पर भी विजय प्राप्त की

* कुंवर अमरसिंह तेज गति से एक ही दिन में 5 शाही थाने उठाते हुए चावण्ड में महाराणा प्रताप के पास हाजिर हुए

"तुर्कों की हर चौकी पर,
रजपूती शस्त्रों का वार हुआ |
फिर से मेवाड़ी धरती पर,
राणा प्रताप का अधिकार हुआ ||

* मेवाड़ में 1575 ई. से 1585 ई. तक 10 वर्षों में जो कुछ भी मुगलों ने जीता, वो लगभग सब महाराणा प्रताप ने मात्र एक वर्ष (1585-86 ई.) में मुगलों से छीन लिया

महाराणा प्रताप ने इस एक वर्ष में 36 मुगल थानों पर अधिकार किया

लेकिन जगन्नाथ कछवाहा ने जो मुगल थाने मुकर्रर किए थे, वे अभी भी मौजूद थे

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा चावण्ड को मेवाड़ की नई राजधानी बनाने व चावण्ड में नवनिर्माण करवाने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 84


विश्वासघाती किसान को मृत्युदण्ड देते महाराणा प्रताप

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 148

1585 ई.

"आदेशों के उल्लंघन पर किसान को मृत्युदण्ड"

> ऊंठाळे की शाही फौज के किसी थानेदार ने वहां के एक विश्वासघाती किसान से किसी खास किस्म की तर्कारी बुवाई थी

किसान ने महाराणा प्रताप के आदेश का उल्लंघन किया

कविराज श्यामलदास लिखते हैं "महाराणा प्रताप ने रात के वक्त शाही फौज के बीच में जाकर उस किसान का सिर काट दिया | फौजी आदमियों के हमला करने पर महाराणा प्रताप उनसे लड़ते-भिड़ते पहाड़ियों में चले गए"

> इसी तरह की एक और घटना में महाराणा प्रताप ने मुगल फौज को फसल उगा कर देने वाले एक विश्वासघाती किसान को मृत्युदण्ड दिया व उसके शव को पेड़ पर लटका दिया गया

इन सख्त फैसलों के बाद महाराणा प्रताप के आदेशों का उल्लंघन नहीं हुआ

> कर्नल जेम्स टॉड लिखता है

"प्रताप ने मेवाड़ को रेगिस्तान (वीरान) बना दिया | जो भी समतल भूमि पर बसता, उसको प्रताप ने तलवार पर चढ़ा दिया | एक भयानक, परन्तु अनिवार्य बलिदान"

17 सितम्बर, 1585 ई.

"जगन्नाथ कछवाहा व महाराणा के बीच छापामार लड़ाईयां"

> जगन्नाथ कछवाहा ने महाराणा प्रताप के निवास स्थान चावण्ड पर हमला किया  व चावण्ड को लूट लिया, पर महाराणा प्रताप बच निकले

> महाराणा प्रताप अपने परिवार समेत चावण्ड से कुम्भलगढ़ पधारे व कुम्भलगढ़ के पास एक शाही थाने पर हमला कर दिया

सैयद राजू को इस हमले की खबर मिली, तो वो मांडलगढ़ से निकलकर महाराणा के पीछे गया

जगन्नाथ कछवाहा भी कुम्भलगढ़ पहुंचा, पर तब तक महाराणा प्रताप वहां से निकल चुके थे

> जगन्नाथ कछवाहा व सैयद राजू की फौजें मिल गईं व महाराणा प्रताप की खोज में जुट गईं

"महाराणा प्रताप की चित्तौड़ में कार्यवाही"

> महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ की पहाड़ियों में प्रवेश किया

शाही फौज ने चित्तौड़ की पहाड़ियों में प्रवेश नहीं किया, हालांकि वे जानते थे कि महाराणा प्रताप चित्तौड़ में ही हैं | शाही फौज ने महाराणा के बाहर निकलने तक इन्तजार किया |

> चित्तौड़ पर इस वक्त मुगलों का अधिकार था और अकबर ने 1568 ई. में चित्तौड़ का नाम 'अकबराबाद' कर दिया था

> फिर भी महाराणा प्रताप ने वहां आम लोगों में एक हुक्म जारी करवा दिया कि "जो कोई भी चित्तौड़ को अकबराबाद के नाम से पुकारेगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जावेगा"

> चित्तौड़ की प्रजा ने भी अकबराबाद नाम स्वीकार नहीं किया

> कुछ समय बाद चित्तौड़ की पहाड़ियों से निकलकर महाराणा प्रताप ने एक शाही थाने पर हमला कर दिया, जिससे सैयद राजू और जगन्नाथ कछवाहा की फौज का ध्यान फिर से महाराणा की तरफ गया

8 अक्टूबर, 1585 ई.

* अबुल फजल लिखता है "जगन्नाथ कछवाहा ने एक दफ़ा फिर राणा के डेरे पर हमला किया, पर राणा बच निकला | शाही फौज राणा के गुजरात जाने की अफवाह सुनते ही गुजरात के लिए निकली | बीच रास्ते में उन्हें खबर मिली की राणा ने डूंगरपुर के रावल साहसमल के साथ मिलकर बगावत कर दी | शाही फौज डूंगरपुर पहुंची, जहां राणा तो नहीं मिला, पर गद्दारी के एवज़ में साहसमल से भारी जुर्माना वसूला गया"

* महाराणा प्रताप ने गोडवाड़ में प्रवेश किया

* जगन्नाथ कछवाहा को रास्ते में जो भी मिलता, उससे वह महाराणा प्रताप के बारे में जरुर पूछता

आखिरकार 2 वर्षों की नाकामयाबी से थक-हारकर जगन्नाथ कछवाहा मेवाड़ में कईं थाने मुकर्रर कर कश्मीर अभियान में चला गया

(1608 ई. में जगन्नाथ कछवाहा महाराणा अमरसिंह के हमले से मारा गया, जिसका हाल महाराणा अमरसिंह के इतिहास में लिखा जाएगा)

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के विजय अभियान व 36 मुगल थानों पर विजय के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 83



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 147

1583 ई.


* महाराणा प्रताप का छापामार युद्धों में साथ देने वाले बेदला के बलभद्र सिंह चौहान का देहान्त हुआ

ये महाराणा प्रताप की एक रानी के भाई थे

1584 ई.

* महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध व छापामार युद्धों में साथ देने वाले देवगढ़ के रावत सांगा चुण्डावत व जवास के रावत बाघ सिंह का देहान्त हुआ

रावत चन्द्रभान जवास के शासक बने व महाराणा प्रताप का साथ दिया

* इसी वर्ष महाराणा प्रताप के पौत्र व कुंवर अमरसिंह के पुत्र भंवर कर्ण सिंह का जन्म हुआ

* इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप मांडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ दुर्ग के आसपास की समतल भूमि पर तैनात मुगलों पर हमले करने लगे

"महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के सेनापति जगन्नाथ कछवाहा का मेवाड़ अभियान"

* महाराणा प्रताप द्वारा दिवेर समेत कई मुगल थानों पर हमले और विजय के बारे में अबुल फजल लिखता है

"राणा की हरकतें बड़ी खतरनाक होती जा रही थीं | खबर आई कि राणा पहाड़ी की घाटियों में से निकल आया है और उसने फिर से कलह करना शुरु कर दिया है | वह कमजोरों पर जुल्म कर रहा था | शरारतियों को सज़ा देना खुदा की इबादत है, इस खातिर आमेर के जगन्नाथ कछवाहा को मुगल फौज की कमान और अजमेर का सूबा सौंपकर राणा को खदेड़ने भेजा गया | जफ़र बेग को बख्शी बनाया गया"

* जगन्नाथ कछवाहा :-

ये आमेर के भारमल्ल का बेटा व मानसिंह का काका था | हल्दीघाटी युद्ध में राजा रामशाह तोमर व रामदास राठौड़ की हत्या इसी ने की थी |
जगन्नाथ कछवाहा का मेवाड़ अभियान

5 दिसम्बर, 1584 ई.

* जगन्नाथ कछवाहा हजारों की मुगल फौज के साथ मेवाड़ आया

* जगन्नाथ कछवाहा के साथ आने वाले प्रमुख मुगल सिपहसालार :-

> सैयद राजू :- इसने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था

> मिर्जा जफ़र बेग :- इसे बख्शी बनाया गया

> वज़ीर ज़मील

> सैफ उल्लाह

> मुहम्मद खां

> जान मुहम्मद

> शेर बिहारी

* शाही फौज के मेवाड़ में आने की खबर सुनकर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के आम लोगों में हुक्म जारी करवाया कि

"जो कोई भी एक बिस्वा ज़मीन भी जिराअत (खेती) करके मुगल फौज को हासिल देगा, उसका सर कलम कर दिया जावेगा"

* जगन्नाथ कछवाहा मांडलगढ़ पहुंचा

उसने मोही व मदारिया पर कब्जा किया

उसने मांडलगढ़ सैयद राजू को सौंप दिया व खुद महाराणा प्रताप की खोज में लग गया

* जगन्नाथ कछवाहा ने महाराणा प्रताप के निवास स्थान पर हमला किया, तो महाराणा प्रताप वो जगह छोड़कर निकले और बेहतरीन छापामार प्रणाली अपनाते हुए  दूसरी पहाड़ी से निकलकर हजारों की मुगल फौज पर अचानक आक्रमण कर दिया, जिससे जगन्नाथ कछवाहा बचने में कामयाब रहा, पर मुगल फौज को भारी क्षति हुई

इस घटना को अबुल फजल कुछ इस तरह लिखता है :-

"जगन्नाथ कछवाहा ने राणा के डेरे पर हमला किया, पर राणा अपने एक खैरख्वाह के इशारे से बचकर निकल गया | लगा जैसे राणा भाग गया, पर उसने अचानक दूसरी तरफ से पहाड़ियों से निकलकर शाही फौज पर जोरदार हमला किया, जिससे शाही फौज में हडकम्प मच गया | राणा हमला करने के बाद फिर पहाड़ियों में चला गया | इस तरह शाही फौज को यहां कोई जीत नसीब नहीं हुई"

* अगले भाग में जगन्नाथ कछवाहा व महाराणा प्रताप के बीच हुए छापामार युद्धों के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 82



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 146

"सागरसिंह का सिरोही पर आक्रमण"


> जगमाल के छोटे भाई सागरसिंह ने मेवाड़ महाराणा से बगावत करके अकबर की शरण में जाकर उसकी फौजी मदद ली और सिरोही पर चढाई की

> अकबर ने इन सिपहसालारों को सिरोही फतह करने भेजा :-

१) मेवाड़ का सागरसिंह सिसोदिया
२) मारवाड़ का मोटा राजा उदयसिंह
३) जामबेग
५) बीजा देवड़ा

> अकबर की फौज की तरफ से लड़ते हुए बीजा देवड़ा मारा गया

> महाराणा प्रताप के मित्र व सम्बन्धी सिरोही के राव सुरताण देवड़ा पहाड़ों में चले गए और उनकी तरफ से ये राजपूत लड़ते हुए काम आए :-

* देवड़ा समरा नरसिंहोत
* चीबा
* जैता
* तोगा सूरावत
* देवड़ा पत्ता

> आखिरकार सागरसिंह ने सिरोही पर फतह हासिल की और भाई जगमाल की मृत्यु का बदला लेने के लिए सिरोही के वीर जब युद्ध में मूर्छित पड़े थे, तब उनको एक-एक करके कत्ल किया और अपनी क्रूरता का परिचय दिया

> सिरोही की तरफ से लड़ते हुए प्रसिद्ध चारण कवि दुरसा आढ़ा मूर्छित पड़े थे और सागरसिंह उनको मारने करीब आया कि तभी दुरसा आढ़ा ने कहा कि "मैं एक चारण हूं और मुझे इस तरह मारना आपको शोभा नहीं देता"

सागरसिंह ने कहा कि "मैं कैसे मान लूँ कि तुम चारण हो, अगर तुम चारण हो तो अभी-अभी मैंने जिस देवड़ा समरा को मारा उसके बारे में दोहा सुनाओ"

तब दुरसा आढ़ा ने दोहा सुनाया कि

"धर रावां जश डूंगरां, वृद पोता सत्र हाण |
समरे मरण मुधारियो, चहुं थोकां चहुँवाण ||"

> दोहा सुनकर सागरसिंह ने दुरसा आढ़ा को जीवनदान दिया और अपने साथ अकबर के यहां ले गया

(ये चारण कवि दुरसा आढ़ा वही हैं, जिन्होंने बाद में महाराणा प्रताप के देहान्त पर भरे मुगल दरबार में अकबर के रोने का उल्लेख किया था)

* अगले भाग में अकबर के सेनापति जगन्नाथ कछवाहा के मेवाड़ अभियान के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 81



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 145

"सागरसिंह का मुगल सेवा में जाना"

(इस घटना का समय इतिहास में नहीं लिखा गया, लेकिन ये घटनाएँ 1583 ई. से 1590 ई. के बीच की मालूम होती हैं)

> सागरसिंह का जन्म 1556 ई. में हुआ

> ये महाराणा उदयसिंह व रानी धीरबाई भटियाणी का पुत्र व जगमाल का छोटा भाई था

> मेवाड़ के लिए जगमाल से ज्यादा सागरसिंह संकट का कारण बना

> महाराणा प्रताप ने जगमाल की मृत्यु पर ज्यादा शोक न किया और कुंवर अमरसिंह की पुत्री केसर कुमारी की सगाई सिरोही के राव सुरताण से तय की

इस बात से सागरसिंह नाराज हो गया | उसने महाराणा से कहा कि जिसने मेरे भाई की हत्या की, उसके साथ आप रिश्तेदारी कैसे निभा सकते हैं ?

महाराणा प्रताप ने कहा कि "कुल सिसोदिये हमारे भाई हैं, जिनमें से हर रोज कोई न कोई मरते हैं, हम किस-किस का बैर लेते फिरें | हमारे लिए सब राजपूत बराबर हैं"

सागरसिंह ने उठकर महाराणा प्रताप को प्रणाम किया और कहा कि "हमको जाने की आज्ञा हो"

तब महाराणा ने कहा "बेशक चले जाओ, तुम्हारे जाने से हमारा कुछ हर्ज नहीं, लेकिन इस तर्ज पर जाना जब ही समझा जावे कि आप अपने पराक्रम से नामवारी हासिल करें, वरना जाहिर है कि हमारे घराने के नाम से दिल्ली जाकर मुसलमानों की नौकरी करके पेट भरोगे"

> सागरसिंह वहां से निकला और आमेर के राजा मानसिंह के यहां अपनी पहचान छिपाकर मामूली नौकर की हैसियत से नौकरी करने लगा

एक दिन राजा मानसिंह अपनी भटियाणी रानी के साथ विश्राम कर रहे थे | बारिश हो रही थी और पर्नालों का पानी नीचे पत्थरों पर गिरने से आवाज हो रही थी, जो मानसिंह के विश्राम में बाधा बन रही थी |

(ये भटियाणी रानी जैसलमेर के राजा लूणकरण की दूसरी बेटी व मेवाड़ की रानी धीरबाई भटियाणी की सगी छोटी बहन थीं | इस तरह ये सागरसिंह की मौसी थी)

सागरसिंह ने अपनी सूझबूझ से नीचे घास बिछाकर ये आवाज रोक दी, तब मानसिंह ने बाहर आकर देखा और सागरसिंह को देखकर सोचा कि ये जरुर कोई खास व्यक्ति है | मानसिंह ने खुद नीचे आकर देखा तो पता चला कि ये मेवाड़ का राजकुमार है |

> मानसिंह कुछ समय बाद सागरसिंह को अकबर के यहां ले गया

अकबर ने सागरसिंह को शुरुआत में महज़ 200 सवार का मनसब दिया, पर कुछ वर्षों बाद इसे बढ़ाकर 3000 जात व 2000 सवार कर दिया गया व कंधार की जागीर दी

> अकबर ने सागरसिंह को जगमाल की मृत्यु का बदला लेने का एक मौका दिया

उसने सागरसिंह को शाही फौज के साथ सिरोही पर हमला करने भेजा, जिसका हाल अगले भाग में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 80



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 144

17 अक्टूबर, 1583 ई.

"दत्ताणी का युद्ध"


* ये युद्ध अकबर की फौज व सिरोही के राव सुरताण देवड़ा के मध्य हुआ

(इस युद्ध का वर्णन महाराणा प्रताप के इतिहास में इसलिए किया गया है क्योंकि राव सुरताण महाराणा प्रताप के मित्र थे व महाराणा के निर्देशों पर ही मुगल विरोध कर रहे थे | इसके अतिरिक्त इस युद्ध में मुगल फौज का नेतृत्व महाराणा के भाई जगमाल ने किया था, इसलिए दत्ताणी के युद्ध का वर्णन यहां करना आवश्यक है)

* जगमाल सिसोदिया की पत्नी सिरोही के मानसिंह की पुत्री थी, जिस वजह से उसने अपने पति जगमाल से कहा कि मेरे पिता के देहान्त के बाद सुरताण कौन होता है सिरोही पर राज करने वाला, वहां तो हमारा हक ज्यादा होता है

* एक दिन राव सुरताण की अनुपस्थिति में जगमाल ने बीजा देवड़ा के साथ मिलकर सिरोही पर हमला किया, लेकिन सिरोही के सामन्तों से पराजित होकर ये पीछे लौट गए

* जगमाल अकबर से मदद मांगने गया, तो अकबर ने शाही फौज तीन सेनापतियों के नेतृत्व में सिरोही भेजी :-

१) मेवाड़ का जगमाल सिसोदिया
२) दांतीवाड़ा का कोली सिंह
३) मारवाड़ का रायसिंह (राव चन्द्रसेन का तीसरा पुत्र)

* जगमाल ने इस फौजी मदद से सिरोही पर चढाई की

राव सुरताण अपने परिवार व फौज सहित सिरोही के महल छोड़कर माउन्ट आबू स्थित अचलगढ़ दुर्ग में चले गए

जगमाल ने सिरोही जीतकर अचलगढ़ पर चढाई की

राव सुरताण ने दुर्ग से निकलकर दत्ताणी नामक स्थान पर अपनी कुल फौज जमा की

* दत्ताणी के युद्ध में राव सुरताण के नेतृत्व में सिरोही की फौज के हाथों अकबर के तीनों सेनापति जगमाल, रायसिंह व कोली सिंह मारे गए

जगमाल सिसोदिया के पीछे उसकी 6 पत्नियाँ सती हुईं

राव सुरताण देवड़ा ने दत्ताणी के युद्ध में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की

* सिरोही के इतिहास के इस सबसे बड़े युद्ध के बाद एक कहावत चल पड़ी कि

"नाथ उदयपुर न नम्यो, नम्यो न अर्बुद नाथ"


अर्थात् ना तो उदयपुर के महाराणा प्रताप ने पराजय स्वीकार की और ना ही सिरोही के राव सुरताण ने

* अबुल फजल ने मुगल फौज की नाकामयाबी को छुपाते हुए इस युद्ध का वर्णन ना करते हुए सिर्फ इतना लिखा कि

"जगमाल और रायसिंह सिरोही के महलों में सो रहे थे कि तभी राव सुरताण ने धोखे से इनको मार दिया"

* अगले भाग में जगमाल के छोटे भाई सागरसिंह द्वारा मेवाड़ से बगावत करके अकबर की शरण लेने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 79



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 143

1583 ई.


"बांसवाड़ा के रावल मानसिंह की मृत्यु व ठाकुर मानसिंह चौहान का गद्दी पर अवैध कब्जा"

इस समय बांसवाड़ा पर रावल प्रतापसिंह के दासीपुत्र रावल मानसिंह का शासन था

बांसवाड़ा में भीलों ने बगावत की, तो रावल मानसिंह ने सैकड़ों भीलों को मारकर उनके सर्दार को गिरफ्तार कर लिया

उस भील सर्दार ने अचानक एक राजपूत की तलवार छीनकर रावल मानसिंह को मार दिया

इसी समय बांसवाड़ा के सामन्त ठाकुर मानसिंह चौहान ने उस भील सर्दार को मार दिया और खुद बांसवाड़ा की गद्दी पर बैठ गया

इस समय बांसवाड़ा महाराणा प्रताप के अधीन था, इसलिए बांसवाड़ा का अगला शासक कौन होगा ये महाराणा को तय करना था, पर ठाकुर मानसिंह चौहान ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध जाकर बांसवाड़ा की राजगद्दी हथिया ली

"डूंगरपुर रावल साहसमल की बांसवाड़ा चढ़ाई"

महाराणा प्रताप के अधीन डूंगरपुर नरेश रावल साहसमल ने मानसिंह चौहान को खत लिखा कि "तुमको सिसोदियों का राज नहीं मिल सकता"

मानसिंह चौहान ने खत का जवाब नहीं दिया, तो रावल साहसमल ने बांसवाड़ा पर हमला किया

मानसिंह चौहान ने रावल साहसमल को पराजित कर डूंगरपुर लौटने को विवश कर दिया

"महाराणा प्रताप द्वारा बांसवाड़ा पर फौज भेजना"

महाराणा प्रताप इस समय मुगलों से संघर्ष में उलझे हुए थे, फिर भी उन्होंने एक छोटी सी सेना रावत रतनसिंह चुण्डावत व रावत रायसिंह चुण्डावत के नेतृत्व में भेजी

मानसिंह चौहान ने कुल बांसवाड़ा की फौज समेत मेवाड़ी फौज का सामना किया

इस लड़ाई में मानसिंह चौहान विजयी रहा और मेवाड़ की तरफ से रावत रायसिंह चुण्डावत वीरगति को प्राप्त हुए

"महाराणा प्रताप की बांसवाड़ा पर कूटनीतिक कार्यवाही"

महाराणा प्रताप व डूंगरपुर के रावल साहसमल ने मिलकर कूटनीति से बांसवाड़ा का आधा राज्य मानसिंह चौहान से छीनकर बांसवाड़ा के वैध उत्तराधिकारी रावल उग्रसेन (रावल प्रतापसिंह के भाई) को दिलवा दिया

महाराणा प्रताप द्वारा बांसवाड़ा पर अगली कार्यवाही 1586 ई. में की गई, जिसका हाल मौके पर लिखा जाएगा

* अगले भाग में सिरोही राव सुरताण (महाराणा प्रताप के मित्र) व मेवाड़ के जगमाल (महाराणा के भाई) के बीच हुए "दत्ताणी के युद्ध" के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 78



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 142

1583 ई.

"मांडल का युद्ध"


* अकबर ने मांडल के शाही थाने पर राव खंगार कछवाहा व नाथा कछवाहा के नेतृत्व में मुगलों, कछवाहा राजपूतों व अन्य मातहत राजपूतों को तैनात कर रखा था |

* दिवेर व कुम्भलगढ़ विजय के बाद महाराणा प्रताप ने भीलवाड़ा में स्थित मांडल के शाही थाने पर अचानक आक्रमण किया

* राजा भारमल का बेटा जगन्नाथ कछवाहा पहले ही भाग निकला

* मांडल के शाही थाने का मुख्तार राव खंगार कछवाहा था

मांडल में स्थित राव खंगार कछवाहा की छतरी पर मांडल के युद्ध में मरने वाले 8 प्रमुख राजपूतों के नाम लिखे हैं, जो इस तरह हैं :-

1) राव खंगार कछवाहा :-

ये मानसिंह का काका था | इसने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था | राव खंगार ने महाराणा प्रताप के मित्र राव दूदा हाडा को पराजित किया था | कछवाहों में राव खंगार को एक महान योद्धा का दर्जा मिला है | राव खंगार कछवाहों की खंगारोत शाखा का मूलपुरुष था |

महाराणा के हमले से राव खंगार कछवाहा शाही थाने की हिफाजत करता हुआ अपने साथियों समेत मारा गया

राव खंगार की 19 पत्नियाँ थीं, जिनमें से बहुत सी सती हुई

कछवाहों की ख्यातों में लिखा है कि "राव खंगार कछवाहा पुर-मांडल के शाही थाने की रक्षा कर रहे थे, कि तभी शत्रु ने पीछे से अचानक आक्रमण कर दिया | राव खंगार बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए"

पुर-मांडल में राव खंगार कछवाहा की छतरी बनाई गई, जो अब तक मौजूद है

2) नाथा कछवाहा :- ये जयपुर के कछवाहों में नाथावतों का मूलपुरुष था | नाथा कछवाहा चित्तौड़ विध्वंस (1568 ई.) व हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.) में मुगल फौज के साथ था | इस पर नाथावंशप्रकाश नामक ग्रन्थ भी लिखा जा चुका है | मांडल की इस लड़ाई में नाथा कछवाहा भी मेवाड़ी फौज के हाथों कत्ल हुआ |

"अकबर ने भेजे मांडल में,
खंगार राव अर नाथ कछावा |
राणा के हमले हुए पल भर में,
खंगार-नाथ का दमन हुआ ||"


3) दाद चवाण

4) मानै हामो

5) दुरम्यों तंवर

6) मुगो चवाण

7) घैड़ चवाण

8) सुरता

(ये नाम छतरी पर लिखे हैं | इसके अलावा बांकीदास री ख्यात में भी इन नामों का जिक्र हुआ है)

* अगले भाग में बांसवाड़ा के रावल मानसिंह चौहान पर महाराणा प्रताप द्वारा फौज भेजने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप के इतिहास का भाग - 77



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 141

1582 ई.

"दिवेर विजय का परिणाम"


> सुल्तान खां के मरने की खबर सुनकर कोशीथल वगैरह थानों के मुगल बिना लड़े ही भाग निकले

> दिवेर का युद्ध एक निर्णायक युद्ध रहा

> विजयादशमी के दिन महाराणा प्रताप ने दिवेर के युद्ध में एेतिहासिक विजय प्राप्त की

दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई

> दिवेर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने 15 गाँव व 1000 गायें दान कीं

> इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने पूंचौली गौरा को प्रधान नियुक्त किया

> दिवेर के मेवा का मथारा नामक स्थान पर महाराणा प्रताप की दिवेर विजय का भव्य स्मारक बना हुआ है
दिवेर विजय स्मारक

1583 ई.

"कुम्भलगढ़ का युद्ध"


> 1578 ई. में शाहबाज खां ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर किला अब्दुल्ला खां को सौंप दिया था

> दिवेर के आगे कुम्भलगढ़ के पहाड़ शुरु होते हैं

इसी घाटी के मुहाने पर दूसरी मुगल चौकी थी, जिसके मुख्तार को महाराणा प्रताप ने अपने हाथों से मारा

> हमीरसर तालाब/झील पर महाराणा प्रताप का अधिकार :-
हमीरसर तालाब

ये झील महाराणा हम्मीर ने 1330 ई. में बनवाई | ये झील कुम्भलगढ़ के समीप स्थित है | इसे हमीरपाल या हमेरपाल झील भी कहते हैं |

महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ के समीप स्थित हमीरसर तालाब पर मुगल चौकी हटाकर कब्जा किया

> अब महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर चढ़ाई की

कुम्भलगढ़ दुर्ग में अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था

युद्ध की शुरुआत में ही अब्दुल्ला खां मारा गया

थोड़ी देर लड़ने के बाद मुगल फौज महाराणा की दहशत से किला छोड़कर भाग निकली

महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर मुगलीय परचम हटा कर मेवाड़ी ध्वज फहराया
कुम्भलगढ़ दुर्ग

> समूचे राजपूताने में महाराणा की वीरता की प्रशंसा हुई कि जिस कुम्भलगढ़ दुर्ग को फतह करने के लिए मुगल सिपहसालार शाहबाज खां को 20 हजार की फौज व भारी तोपखाने के साथ 6 महीने तक घेरा डालना पड़ा, उसी दुर्ग पर महाराणा प्रताप ने बिना तोपखाने व महज तीन-चार हजार की फौज से बिना घेरा डाले ऐतिहासिक विजय प्राप्त की

* अगले भाग में मांडल के युद्ध के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 76


कुंवर अमरसिंह सुल्तान खां पर प्रहार करते हुए

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 140

अक्टूबर, 1582 ई.

'विजयादशमी का दिन'

"दिवेर का युद्ध"

"महाराणा प्रताप का सुल्तान खां से आमना-सामना"


महाराणा प्रताप का सामना सुल्तान खां से हुआ

सुल्तान खां हाथी पर सवार था

महाराणा प्रताप के घोड़े ने अपने पैरों से सुल्तान खां के हाथी के दांतों पर प्रहार किया

महाराणा प्रताप ने अपने भाले से सुल्तान खां के हाथी के मस्तक को फोड़ दिया

"गज पर बैठा सुल्तान खान,
राणा ने गज पर प्रहार किया |
चूर हुआ खुरसाणी अभिमान,
जब गज कुम्भ का विध्वंस किया ||"


तभी सौलंकी भृत्य पड़िहार ने सुल्तान खां के हाथी का पिछला पैर काट दिया

सुल्तान खां बच गया और उसने घोड़े पर बैठ कर युद्ध लड़ना शुरु किया

"कुंवर अमरसिंह के हाथों सुल्तान खां वध"

सुल्तान खां का सामना कुंवर अमरसिंह से हुआ

कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां पर भाले से भीषण प्रहार किया

भाला इतने तेज वेग से मारा था कि सुल्तान खां के कवच, छाती व घोड़े को भेदते हुए जमीन में घुस गया और वहीं फँस गया

"टोप उड्यो बख्तर उड्यो,
सुल्तान खां रे जद भालो मारियो |
राणो अमर यूं लड्यो दिवेर में,
ज्यूं भीम लड्यो महाभारत में ||"


"महाराणा द्वारा सुल्तान खां को जल पिलाकर मानवीयता का परिचय देना"

सुल्तान खां मरने ही वाला था कि तभी वहां महाराणा प्रताप आ पहुंचे

सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह को देखने की इच्छा महाराणा के सामने रखी, तो महाराणा ने किसी और राजपूत को बुलाकर सुल्तान खां से कहा कि "यही अमरसिंह है"

सुल्तान खां ने कहा कि "नहीं ये अमरसिंह नहीं है, उसी को बुलाओ"

तब महाराणा ने कुंवर अमरसिंह को बुलाया

सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह के वार की सराहना की

महाराणा ने सुल्तान खां को तकलीफ में देखकर कुंवर अमरसिंह से कहा कि "ये भाला सुल्तान खां के जिस्म से निकाल लो"

कुंवर अमरसिंह ने खींचा पर भाला नहीं निकला, तो महाराणा ने कहा कि "पैर रखकर खींचो"

तब कुंवर अमरसिंह ने भाला निकाला

सुल्तान खां ने पानी मांगा, तो महाराणा प्रताप ने गंगाजल मंगवाया और अपने हाथों से पिलाया

इस तरह सुल्तान खां को मोक्ष प्राप्त हुआ

* अगले भाग में दिवेर विजय के परिणाम व महाराणा प्रताप की कुम्भलगढ़ विजय के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)