* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 117
जनवरी-फरवरी, 1577 ई.
* ईडर के नारायणदास राठौड़ व सिरोही राव सुरताण द्वारा मुगल विरोधी कार्यवाहियाँ
23 फरवरी, 1577 ई.
"ईडर का दूसरा युद्ध"
ईडर के पहले युद्ध में मुगलों ने फतह पाई और ईडर पर कब्जा कर लिया था, इस कारण राय नारायणदास ने फिर से ईडर लेने का इरादा किया
राय नारायणदास ने अपने दामाद व मित्र महाराणा प्रताप को संदेशा भिजवा दिया
महाराणा प्रताप थोड़े बहोत सैनिकों समेत फौरन ईडर के लिए निकले
मुगलों ने 500 घुड़सवारों को ईडर में तैनात किया और बाकी को राय नारायणदास और महाराणा प्रताप से लड़ने भेजा
मुगल फौज ईडर से 7 कोस तक गई और वहां उन्हें राय नारायणदास की फौज नज़र आई
(इस लड़ाई का हाल सिर्फ फारसी तवारिखों में ही मिलता है, इसलिए यहां अकबरनामा व मुन्तखब-उत-तवारीख से इस युद्ध का वर्णन किया गया है)
ईडर के युद्ध में भाग लेने वाले मुगल सिपहसालार -
> आसफ खान (नेतृत्वकर्ता)
> हीरा भान
> धीर परवन
> कुतुब खान (मारा गया)
> मिर्जा मुहम्मद मुफीम (मारा गया) :- ये हरावल का नेतृत्वकर्ता था, जो युद्ध की शुरुआत में ही मारा गया |
> मुहम्मद मुकीम (मारा गया)
> कुलीज खान
> तैमूर बदख्शी
> ख्वाजा गयासुद्दीन
> मीर अबुलगौस
> नूर किलीज
> नकीब खान :- ये वही नकीब खां है, जिसने हल्दीघाटी युद्ध में इसलिए भाग नहीं लिया, क्योंकि उसका नेतृत्व एक हिन्दु (मानसिंह) कर रहा था | ईडर के इस युद्ध का नेतृत्व आसफ खां ने किया, इसलिए नकीब खां भी इसमें शामिल हुआ |
अबुल फजल लिखता है
"राय नारायणदास ने राणा कीका और दूसरे ज़मीदारों से मिलकर नई फौज बनाई और ईडर से कोई 10 कोस तक चढ़ आया | राजपूतों का इरादा रात में अचानक हमला करने का था | ये बात आसफ खां को मालूम चली, तो उसने भी रात को ही हमला करने का फैसला किया | जल्द ही लड़ाई शुरु हुई | तीर, तलवार और भाले हवा में उड़ने लगे | शाही फौज की हरावल पर राजपूतों ने करारी चोट की, जिससे हरावल की कमान सम्भालने वाला मिर्जा मुहम्मद मुफीम बड़ी बहादुरी से लड़कर शहीद हुआ | शाही फौज ने अपने घोड़ों की रास ढीली कर दी और लड़ने के लिए टूट पड़े | बेहद बहादुर राजपूतों ने भी अपने भाले ताने और उनसे भिड़ गए | अचम्भे में डाल देने वाली हाथों-हाथ लड़ाई हुई | खून शराब की तरह बहने लगा, बरछों की मूठें प्याले और तीर आखिरी स्वाद था | हाथ-पैर जख्मी होने के बावजूद भी नूर किलीज लड़ता रहा | राजपूतों ने जोर पकड़ा, तो मुजफ्फर घोड़े से गिर गया, पर बहादुरों ने उसे फिर घोड़े पर बिठा दिया | धीर परवन ने भी बड़ी बहादुरी दिखाई | मुहम्मद मुकीम ने मौत का शानदार शर्बत पिया | कुतुब खां ने भी अपनी जिन्दगी का सिक्का दांव पर लगा दिया | जब पीछे वाली शाही फौज आगे बढ़ी, तो राजपूतों से जो बन पड़ा वो किया, पर आखिरकार उन्हें भागना पड़ा | बादशाही फौज ने फतह हासिल की और जीत की खबर शहंशाह के पास पहुंची, तो उन्होंने भी खुदा का शुक्रिया अदा किया | शहंशाह ने आसफ खां के पास तारीफों से भरा एक फरमान भेजा"
अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है "ईडर का राय हमसे एक कदम आगे रहता था | इस जंग में शाही फौज ने फतह पाई, पर राणा कीका (राणा प्रताप) और राय नारायणदास लोमड़ियों की तरह चालाक थे | उन्होंने हमारी फौज को काफी नुकसान पहुंचाया"
(अकबर का ईडर पर अधिकार बना रहा और राजपूतों की पराजय हुई | अबुल फजल के लिखे वर्णन से साफ जाहिर होता है कि पूरे युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी रहा, परन्तु उसने ये भी लिखा है कि पीछे खड़ी शाही फौज भी लड़ने को आगे आई | हल्दीघाटी युद्ध में भी मुगलों ने यही रणनीति अपनाई थी | ईडर की इस लड़ाई में भी पीछे सुरक्षित खड़ी फौज को अन्तिम क्षणों में आगे लाकर युद्ध के नतीजे बदल दिए गए)
* अगले भाग में मेवाड़ी फौज द्वारा गोडवाड़ में लूटमार, मुगलों का नीमच के मेवाड़ी थाने पर हमला व छापली के युद्ध के बारे में लिखा जाएगा
:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)
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