Saturday 23 September 2017

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 61



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 125

"कुम्भलगढ़ का युद्ध"

3 अप्रैल, 1578 ई.


* कुम्भलगढ़ युद्ध के 1 वर्ष के भीतर लिखे गए ग्रन्थ 'तारीख-ए-अकबरी' में हाजी मोहम्मद आरिफ कन्धारी लिखता है

"शाहबाज खां ने किला फतह करने की खुशखबर शाही दरबार तक पहुंचाई कि उसने किन मुश्किलों में ये किला फतह किया | खुदा के रहमोकरम से ही कुम्भलमेर का किला फतह हो सका | कुम्भलमेर का किला इतनी बुलन्दी पर बना है कि देखने वालों की आँख उसके छज्जे तक भी बड़ी मुश्किल से पहुंचती है और अगर देखने की कोशिश भी करें, तो पीठ के बल गिर जाते हैं | शहंशाह का मकसद था कि ये किला जीत लिया जावे | शहंशाह ने इस किले को जीतने की इच्छा शाही दरबार में जाहिर की थी | इस पहाड़ी इलाके में एक राणा का राज है, जिसने पहाड़ी मकामों के भरोसे अपने सर को गुरुर से उठा रखा है | राणा कीका अपने सारे साथियों और अपने बराबर वालों के सामने फख्र महसूस करता है कि मैं किसी के मातहत (अधीन) नहीं हूँ | आज तक कोई बादशाह अपने लगाम की डोरी से उसके कान नहीं छेद सका | इस्लामी हुकूमत का उसके मुल्क में कभी कब्जा नहीं हो सका | न जाने कितने बादशाह और सुल्तान मेवाड़ फतह करने की हसरत से मर गए और इस किले को फतह करने में हमेशा हार मानी | शाहबाज खां ने धोखे और चालाकी से ये किला फतह कर रअय्यत (प्रजा) का कत्ल किया | राणा बचकर पहाड़ों में चला गया"

(कुम्भलगढ़ की कुछ प्रजा भामाशाह के साथ व कुछ महाराणा प्रताप के साथ पहले ही निकल गई थी, फिर भी बहुत से लोग किले में थे, वे सभी कत्ल हुए)
कुम्भलगढ़ दुर्ग पर शाहबाज खां का कब्जा

* कुम्भलगढ़ दुर्ग में रसद सामग्री तक नहीं थी | शाहबाज खान ने एक खाली दुर्ग जीता था |

गुस्से में आकर शाहबाज खान ने कुम्भलगढ़ में कई मन्दिर तुड़वाए व अजमेर से रसद सामग्री मंगवाई

4 अप्रैल, 1578 ई.

"शाहबाज खां द्वारा उदयपुर व गोगुन्दा में लूटमार"

शाहबाज खां को झूठी खबर मिली की महाराणा प्रताप गोगुन्दा या उदयपुर गए हैं, तो उसने किला गाजी खां बदख्शी के सुपुर्द किया व खुद गोगुन्दा पहुंचा

शाहबाज खां ने एक ही दिन (4 अप्रैल, 1578 ई.) में गोगुन्दा और उदयपुर जीतकर वहां काफी लूटमार की

"शाहबाज खां द्वारा मन्दिर का अपमान"

3 दिन तक तबाही मचाने के बाद शाहबाज खां सुबह के वक्त कुम्भलगढ़ पहुंचा व एक मन्दिर के ऊपर बैठकर अजान पढ़ी

अबुल फजल ने इसको "राणा का मन्दिर" कहा है

(ये एकलिंग जी का वह मन्दिर था, जिसकी पूजा महाराणा कुम्भा किया करते थे)

"महाराणा द्वारा कुम्भलगढ़ के कत्लेआम का प्रतिशोध"

> महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ की पराजय का प्रत्युत्तर देना जरुरी समझा व अपने थोड़े बहोत सैनिकों के साथ जालौर कूच किया

जालौर पूरी तरह से मुगलों के अधीन था

महाराणा प्रताप ने जालौर में कई शाही थाने लूटकर तहस-नहस करके जला दिए

> महाराणा प्रताप ने मारवाड़ के सिरोंज क्षेत्र में भी तैनात मुगलों को मारकर शाही थाने जला कर खाक किए

महाराणा प्रताप सिरोंज में मुगल थानों से धन लूटते हुए सिरोही की तरफ रवाना हुए

> महाराणा प्रताप द्वारा जालौर व सिरोंज में मुगलों के खिलाफ की गई इस कार्यवाही के बारे में ये दोहे कहे जाते हैं :-

"जारि बारि जालौर, ओर आभा करि डारिय |
कोट ओट डिढ़ ढाहि, भीति भीतिनि सहु पारिय ||
खहरि खभ खन ढहरि, वहरि धर धूमि धूमि मचि |
फौज सिरोंज फिराइ, फूकि पूर फोरि तोरि तचि ||
प्रताप रान प्रताप करि, भरि प्रताप प्रचंड पहु |
उडी खेह खिति खहलोकु, मुदि खंख भख महनत तहु ||"

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

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