Tuesday 31 January 2017

महाराणा प्रताप के इतिहास का भाग - 15

महाराणा प्रताप के इतिहास

राजा भगवानदास व महाराणा प्रताप के बीच सन्धि वार्ता

"मेवाड़ के इतिहास का भाग - 79"

पिछले भाग में अकबर द्वारा भेजे गए 2 सन्धि प्रस्तावों के बारे में लिखा गया था | शेष 2 सन्धि प्रस्ताव कुछ इस तरह हैं :-

> तीसरा सन्धि प्रस्ताव :-

दूत :- राजा भगवानदास (आमेर)


सितम्बर-अक्टूबर, 1573 ई.

अकबर ने आमेर के राजा भगवानदास को सन्धि प्रस्ताव के साथ महाराणा प्रताप के पास भेजा

भगवानदास :- ये आमेर के मानसिंह का पिता व भारमल का बेटा था | भगवानदास पहले महाराणा उदयसिंह का सामन्त था, पर 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार करने के बाद भगवानदास मेवाड़ के सामन्त पद को छोड़कर शाही खिदमत में चला गया |

'अकबरी दरबार' में मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाब लिखता है

"राजा भारमल राणा प्रताप का रिश्तेदार था, पर फिर भी उसका बेटा भगवानदास चित्तौड़ के घेरे में शहंशाह की ओर से ढाल की तरह खड़ा रहा"

(रिश्तेदारी ये थी कि राजा भारमल के पिता पृथ्वीराज कछवाहा मेवाड़ के महाराणा सांगा के बहनोई थे)

महाराणा प्रताप को अपनी ताकत दिखाकर खौफजदा करने के मकसद से भगवानदास बड़नगर, रावलिया वगैरह इलाकों में लूटमार करता हुआ ईडर पहुंचा

ईडर के राय नारायणदास महाराणा प्रताप के ससुर थे | राय नारायणदास ने भगवानदास की खातिरदारी की और बादशाही हुजूर में आने की बात मान ली |

(हालांकि राय नारायणदास इस वक्त बादशाही हुजूर में नहीं गए)

भगवानदास ने उदयपुर में थोड़ी-बहोत तबाही मचाई और गोगुन्दा के आसपास किसी जमींदार को भी कैद किया

महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा के महलों में राजा भगवानदास का आदर सत्कार किया, परन्तु जब भगवानदास ने सन्धि की बात की, तो महाराणा प्रताप ने साफ इनकार कर दिया

अबुल फजल लिखता है

"उदयपुर में बागियों को सबक सिखाकर राजा भगवानदास, शाह कुली महरम, लश्कर खां समेत कुछ सिपहसालार राणा को समझाने गोगुन्दा पहुंचे | राजा भगवानदास को राणा अपने महल ले गया | राणा ने पिछली गुस्ताख़ियों पर शर्मिन्दगी ज़ाहिर की | राणा का दिल उजाड़ था | उसने ख़ुद न आकर अपने बेटे अमरा को राजा भगवानदास के साथ बादशाही खि़दमत में भेजा | शहंशाह ने अमरा (अमरसिंह) को वापस मेवाड़ भेज दिया"

(अबुल फजल का ये लिखना कि राणा ने शर्मिन्दगी दिखाई, पूरी तरह से गलत लगता है | महाराणा प्रताप ने राजा भगवानदास के बुजुर्ग होने के कारण उसका लिहाज रखते हुए अपने महल में आदर सहित बिठाया जरुर था, लेकिन ये बात भी भूलने लायक नहीं है कि भगवानदास महाराणा उदयसिंह का सामन्त रह चुका था | तो जो राजपूत महाराणा प्रताप के पिता का सामन्त रह चुका हो, उसके सामने शर्मिन्दगी दिखाना महाराणा प्रताप की फितरत में नहीं था |

रही बात कुंवर अमरसिंह को शाही दरबार में भेजने वाली, तो अबुल फजल ने सन्धि प्रस्ताव की असफलता को छुपाने के लिए ऐसा लिखा है, क्योंकि ये बात सिवाय अबुल फजल के किसी भी मुगल इतिहासकार ने नहीं लिखी | अबुल फजल की इस बात को गलत साबित करने के लिए किसी मेवाड़ी इतिहासकार के प्रमाण रखने की जरुरत नहीं, क्योंकि ये काम जहांगीर ने कर दिया |

'तुजुक-ए-जहांगीरी' में जहांगीर लिखता है

"राणा अमरसिंह ने हिन्दुस्तान के किसी बादशाह को नहीं देखा | उसने और उसके बाप-दादों ने घमंड और पहाड़ी मकामों के भरोसे किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की है"

> चौथा सन्धि प्रस्ताव :-

दूत :- राजा टोडरमल


दिसम्बर, 1573 ई.

चौथी व आखिरी बार अकबर ने महाराणा प्रताप को मनाने के लिए राजा टोडरमल को भेजा

राजा टोडरमल ने गुजरात से लौटते वक्त महाराणा प्रताप से मुलाकात की

राजा टोडरमल ने महाराणा को भविष्य में होने वाले युद्धों से बचने की चेतावनी दी, पर वह भी महाराणा को मनाने में नाकामयाब रहा

अबुल फजल लिखता है "राजा टोडरमल जब राणा को समझाने गया, तो राणा ने अदब के साथ चापलूसी भी दिखाई, पर बादशाही हुजूर में आने में नाइत्तिफाकी दिखाई"

> अगले भाग में सन्धि प्रस्तावों की असफलता, महाराणा प्रताप द्वारा गुजरात मार्ग पर मुगल फौज को लूटने व हकीम खां सूर के मेवाड़ आगमन के बारे में लिखा जाएगा
:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

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