Tuesday 31 January 2017

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 47



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 111

1576 ई.

"महाराज शक्तिसिंह की भैंसरोडगढ़ विजय व महाराणा से भेंट"


महाराज शक्तिसिंह महाराणा प्रताप से भेंट करने निकले | उन्हें खाली हाथ जाना ठीक न लगा, तो रास्ते में 500 मेवाड़ी सैनिकों के साथ भैंसरोडगढ़ दुर्ग पर हमला कर दिया |

भैंसरोडगढ़ में तैनात मुगल सैनिक कत्ल हुए व महाराज शक्तिसिंह ने दुर्ग जीतकर महाराणा प्रताप को भेंट किया व महाराणा से पिछले गुनाहों की क्षमा मांगी |

महाराणा प्रताप ने महाराज शक्तिसिंह को क्षमा किया व भैंसरोडगढ़ दुर्ग फिर से शक्तिसिंह को दे दिया

साथ ही महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी को एक हाथी व एक घोड़ा भी दिया

महाराणा प्रताप की माता जयवन्ता बाई इसी दुर्ग में रहती थीं, क्योंकि वे शक्तिसिंह जी को भी बहुत स्नेह करती थीं व उम्र की अधिकता के कारण महाराणा प्रताप के साथ जंगलों में नहीं रह सकती थीं |

"चारण कवि माला सांदू का पश्चाताप"

चारण कवि माला सांदू महाराणा प्रताप से भेंट करने मेवाड़ आए | माला सांदू महाराणा प्रताप के विरोधी पक्ष से थे |

माला सांदू के लिखे हुए दोहे, जिनमें उन्होंने पश्चाताप की बातें लिखी है :-

"मह लागौ पाप अभनमा मोकल,
पिंड अदतार भेटतां पाप |
आज हुआ निकलंक अहाडा,
पेखै मुख तांहणे प्रताप ||

चढता कलजुग जोर चढतौ,
घणा असत जाचतौ घणौ |
मिल तां समै राण मेवाड़ा,
टलियौ प्राछत देह तणौ ||

स्रग भ्रतलोक मुणै सीसोदा,
पाप गया ऊजमै परा |
होतां भेट समै राव हीदू,
हुवा पवित्र संग्रामहरा ||

ईखे तूझ कमल ऊदावत,
जनम तणों गो पाप जुवौ |
हैकण बार ऊजला हीदू,
हर सूं जाण जुहार हुवौ ||"

अर्थात्

"हे महाराणा प्रताप ! कलियुग के जोर से मिथ्यावादी एवं अधर्मी राजाओं से याचना करने एवं मिलने से मुझ पर पाप चढ़ गया था, लेकिन आपके उज्जवल मस्तक का एक बार दर्शन करने मात्र से ही ईश्वर के दर्शन करने की तरह मैं उस पाप से मुक्त हो गया हूँ"

* अगले भाग में अकबर द्वारा महाराणा प्रताप के खिलाफ मेवाड़ में जगह-जगह थाने बिठाने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 46


मायरा स्थित शस्त्रागार में महाराणा प्रताप

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 110

अक्टूबर-नवम्बर, 1576 ई.

"अकबर द्वारा नाकेबन्दी"


> महाराणा प्रताप की खोज में अकबर ने नाडोल में सैयद हाशिम व बीकानेर के राजा रायसिंह (महाराणा प्रताप के बहनोई) को नियुक्त किया

> अकबर ने तरसुन खां को पट्टन-गुजरात में तैनात किया, ताकि महाराणा प्रताप गुजरात न जा सकें

"अकबर का गोगुन्दा पर हमला"

अकबर ने कुतुबुद्दीन खां, मानसिंह और भगवानदास को शाही फौज के साथ गोगुन्दा भेजा

महाराणा प्रताप गोगुन्दा की प्रजा और समस्त सैनिकों के साथ गोगुन्दा को वीरान कर पहाड़ों में चले गए

गोगुन्दा पर एक बार फिर मुगलों का अधिकार हुआ

> अबुल फजल लिखता है

"शहंशाह के गोगुन्दा पहुंचने पर राणा पहाड़ियों में छिप गया | शहंशाह ने कुतुबुद्दीन खां, कुंवर मानसिंह और राजा भगवानदास को हुक्म दिया कि वे राणा कीका के मुल्क को रौंद डाले | राणा का पीछा करे और उसे खत्म करे"

"महाराणा प्रताप का दोबारा गोगुन्दा पर आक्रमण और विजय"

कुतुबुद्दीन खां, मानसिंह और भगवानदास जहां भी जाते वहां महाराणा प्रताप अचानक पहाड़ियों से निकलकर उन पर हमले करते

इन्हीं हमलों से तंग आकर इन तीनों को गोगुन्दा छोड़कर जाना पड़ा, लेकिन गोगुन्दा में इन्होंने एक शाही थाना तैनात कर दिया था

महाराणा प्रताप ने बारिश के समय अचानक गोगुन्दा पर आक्रमण किया व विजयी हुए

गोगुन्दा पर महाराणा प्रताप का अधिकार हुआ

"बदनोर की लड़ाईयाँ"

> अकबर ने बदनोर पर हमला कर दिया

बदनोर के मेड़तिया राठौड़ों ने सामना किया और वीरगति को प्राप्त हुए
बदनोर दुर्ग

इस समय बदनोर के ठाकुर मुकुन्ददास मेड़तिया महाराणा प्रताप के साथ थे

> महाराणा प्रताप ने बदनोर के ठाकुर मुकुन्ददास मेड़तिया की जागीर छीन जाने के कारण उनको विजयपुर का परगना जागीर में दिया

> कुछ समय बाद महाराणा प्रताप ने बदनोर पर हमला कर मुगल फौज को मार-भगा कर विजय प्राप्त की व बदनोर की जागीर फिर से ठाकुर मुकुन्ददास मेड़तिया को दे दी

* अगले भाग में शक्तिसिंह जी द्वारा भैंसरोडगढ़ विजय व महाराणा प्रताप के समक्ष माला सांदू के पश्चाताप के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 45



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 109

अक्टूबर, 1576 ई.

"अकबर का दूसरा मेवाड़ अभियान"

* अकबर पहली बार मेवाड़ 1567 ई. में आया था और चित्तौड़ में भयंकर विध्वंस हुआ | इस दौरान अकबर पांच महीनों तक मेवाड़ में ही रुका था |

अब अकबर नौ साल बाद 1576 ई. में फिर से मेवाड़ आया | इस बार अकबर मेवाड़ और मेवाड़ के आसपास लगभग एक वर्ष तक रहा और महाराणा को पकड़ने या मारने के हरसम्भव प्रयास किए |
अकबर

* अकबर के साथ मेवाड़ आने वाले प्रमुख बादशाही सिपहसालार :-

> कुंवर मानसिंह कछवाहा (आमेर)
> राजा भगवानदास कछवाहा (आमेर)
> भगवन्तदास कछवाहा (मानसिंह का काका)
> जगन्नाथ कछवाहा (मानसिंह का काका)
> नाथा कछवाहा (राजा भारमल के भाई गोपाल सिंह का बेटा)
> मनोहरदास कछवाहा (नाथा कछवाहा का बेटा)
> राव खंगार कछवाहा (राजा भारमल का भतीजा)
> राजा रायसिंह राठौड़ (बीकानेर)
> हीरा भान
> लूणकरण
> राजा बीरबल (अकबर के नवरत्नों में से एक)
> तरसुन खां
> कुतुबुद्दीन खां
> सैयद हाशिम
> शाहबाज खां
> मुजाहिद बेग
> गाज़ी खां बदख्शी
> सुभान कुली तुर्क
> शरीफ खां अतका
> कोकलताश
> आसफ खां
> कुतुब खां
> मिर्जा मुहम्मद मुफीम
> मुहम्मद मुकीम
> कुलीज खां
> तैमूर बदख्शी
> ख्वाजा गयासुद्दीन
> नूर किलीज
> मीर अबुलगौस
> नकीब खां
> उमर खां
> हसन बहादुर
> अब्दुल्ला खां
> शाह फखरुद्दीन
> जलालुद्दीन बेग
> अब्दुर्रहमान मुअयिद बेग
> कासिम खां मीरबहर
> अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना (बैरम खां का बेटा)

* अकबर ने मेवाड़ में आते ही सबसे पहले महाराणा प्रताप के मित्रों को पराजित करने के लिए फौजें रवाना की, ताकि महाराणा की शक्ति को कम किया जा सके

"सिरोही व जालौर पर हमला"

> अकबर ने बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़ (महाराणा प्रताप के बहनोई) को सिरोही व जालौर भेजा

राजा रायसिंह ने सिरोही के राव सुरताण देवड़ा व जालौर के नवाब ताज खां को बन्दी बनाकर मुगल दरबार में पेश किया, जहां इन दोनों ने बादशाही मातहती कुबूल की

> राव सुरताण सिरोही लौट आए और कुछ महीनों तक शान्त रहे
(हालांकि बाद में इन्होंने फिर से मुगलों के खिलाफ बगावत कर दी थी, लेकिन कुछ महीनों तक राव सुरताण मुगल विरोध नहीं कर पाए जिससे अकबर को मदद मिली)

> जालौर के ताज खान ने फिर कभी मुगलों का विरोध नहीं किया | जालौर पर मुगलों का अधिकार हुआ |

"ईडर पर हमला"

> अकबर ने महाराणा प्रताप के ससुर ईडर के राय नारायणदास को पराजित किया, जिससे राय नारायणदास को भी कुछ महीनें शान्त रहना पड़ा

अबुल फजल लिखता है "शहंशाह ने एक फौज ईडर पर भेजी, जहां का राजा नारायणदास भी बगावत का झण्डा उठाकर राणा की तरफदारी करता था"

"राव दूदा हाडा पर हमला"

> अकबर ने महाराणा के मित्र राव दूदा हाडा को पराजित करने के लिए राव खंगार कछवाहा (मानसिंह के काका) को भेजा

राव दूदा पराजित हुए, पर बच निकले और बादशाही मातहती कुबूल नहीं की

"राव चन्द्रसेन पर हमला"

> अकबर ने महाराणा के बहनोई मारवाड़ के राव चन्द्रसेन राठौड़ को पकड़ने के लिए शाहबाज खां को भेजा, पर शाहबाज खां को सफलता नहीं मिली

* अगले भाग में बदनोर व गोगुन्दा की लड़ाईयों के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 44



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 108

अक्टूबर, 1576 ई.


"छापामार युद्धों के दौरान महाराणा प्रताप द्वारा जारी तीन ताम्रपत्र"


* महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ पहुंचकर वहां से कुछ गांव जो मुगलों के अधीन थे, उन पर हमले कर विजय प्राप्त की | ये गांव महाराणा ने आचार्य बलभद्र को दान में दे दिए और कुम्भलगढ़ में तीन ताम्रपत्र जारी किए, जो कुछ इस तरह हैं :-

1) संथाणा का ताम्रपत्र :-


> संथाणा गांव उदयपुर के उत्तर पूर्व में कांकरोली स्टेशन से लगभग 12 मील दूर स्थित है

> इस ताम्रपत्र का छायाचित्र कमिश्नर कार्यालय उदयपुर में सुरक्षित है

> इस ताम्रपत्र में 10 पंक्तियाँ लिखी हैं

> भाद्रपद शुक्ला 5 रविवार संवत १६३३ (1576 ई.) को महाराणा प्रताप के आदेश से भामाशाह कावडिया ने यह ताम्रपत्र लिखकर आचार्य बालाजी बा किसनदास बलभद्र को संथाणा गांव प्रदान किया

> ताम्रपत्र की अन्तिम पंक्तियों में यह भी लिखा है कि आचार्य बलभद्र का पुराना ताम्रपत्र चोरी हो गया था, इसलिए इसे नया कर दिया गया

2) पीपली का ताम्रपत्र :-

> पीपली गांव संथाणा गांव से 8 मील दूर स्थित है

> इस ताम्रपत्र में 8 पंक्तियाँ लिखी हैं

> भाद्रपद शुक्ला 11 रविवार संवत १६३३ (1576 ई.) को महाराणा प्रताप के आदेश से भामाशाह कावडिया ने यह ताम्रपत्र लिखकर आचार्य बालाजी बा किसनदास बलभद्र को पीपली गांव प्रदान किया

> मूल ताम्रपत्र खो गया था, इसलिए इसे नया कर दिया गया

3) मही का ताम्रपत्र :-

> इस ताम्रपत्र पर 9 पंक्तियाँ लिखी हैं

> इस ताम्रपत्र के अनुसार संवत १६३३ (1576 ई.) की आश्विन कृष्णा षष्ठि मंगलवार को महाराणा प्रताप ने आचार्य बलभद्र को मही (मोही) गांव में 3 रहट प्रदान किए

> इस ताम्रपत्र को भी भामाशाह कावडिया ने ही लिखा है

> अन्तिम पंक्तियों में लिखा है कि मूल ताम्रपत्र खो जाने ये नया कर दिया गया

* अकबर ने महाराणा प्रताप का साथ देने वाले मित्रों को पराजित करने के लिए उन पर हमले किए, जिनके बारे में अगले भाग में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 43



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 107

सितम्बर, 1576 ई.

"महाराणा प्रताप की गोगुन्दा विजय"


> महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ से कोल्यारी पहुंचे और वहां से गोगुन्दा की तरफ कूच किया

> महाराणा ने गोगुन्दा के महलों पर अचानक हमला कर दिया

भीषण मारकाट के बाद महाराणा प्रताप ने अपने निवास स्थान गोगुन्दा पर विजय प्राप्त की

> महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा में मांडण कूंपावत को नियुक्त किया
गोगुन्दा के राजमहल

> गोगुन्दा के पास मजेरा गाँव में रणेराव के तालाब के पास में महाराणा प्रताप ने सैनिक छावनी बनाई और वहाँ से मेवाड़ के मैदानी भागों में तैनात मुगल थाने उठाए

> गोगुन्दा के युद्ध में कईं मुगल कत्ल हुए और बहुत से भाग निकले

> महाराणा प्रताप चाहते थे कि अकबर स्वयं मेवाड़ आए, इसलिए उन्होंने कुछ शाही सिपहसालारों को छोड़ते हुए व्यंग भरे शब्दों में कहा "अपने बादशाह से कहना कि राणा कीका ने याद किया है"

गोगुन्दा की भीषण पराजय और महाराणा के व्यंग ने मुगल बादशाह अकबर को मेवाड़ आने के लिए विवश कर दिया

अकबर ने मेवाड़ कूच करने की तैयारियाँ शुरु कर दी

"महाराणा प्रताप का कुम्भलगढ़ प्रस्थान"

> महाराणा प्रताप गोगुन्दा से कुम्भलगढ़ पधारे व कुम्भलगढ़ को मेवाड़ की नई राजधानी बनाई

> कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप द्वारा जारी किए गए तीन ताम्रपत्र मिले हैं, जिनमें पीपली व संथाणा गाँव बलभद्र को देने के आदेश थे

(इन ताम्रपत्रों के बारे में अगले भाग में विस्तार से लिखा जाएगा)

> महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ में महता नर्बद को नियुक्त किया

"महाराणा प्रताप द्वारा अजमेर में लूटमार"

> इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप ने अजमेर के इलाकों में मुगल छावनियों पर हमले किए

> ये जानते हुए भी कि अकबर ने चित्तौड़ में मन्दिरों के साथ क्या किया था, महाराणा प्रताप अजमेर ख्वाजा की दरगाह को बिना कोई नुकसान पहुंचाये मेवाड़ लौट आए

"अकबर का मेवाड़ अभियान"

26 सितम्बर, 1576 ई.

* महाराणा द्वारा लूटमार की गतिविधियां बढ़ाने पर अकबर अजमेर पहुंचा

11 अक्टूबर, 1576 ई.


* गोगुन्दा की पराजय के एक माह बाद ही अकबर एक भारी भरकम फौज के साथ अजमेर से मेवाड़ के लिए निकला

अकबर की फौज में तकरीबन 60,000 बादशाही सैनिक, कईं सिपहसालार, सैकड़ों हाथी व 2-4 हजार नौकर चाकर थे

इसके विपरीत इस वक्त महाराणा प्रताप की फौज 3,000 थी, जिसमें तकरीबन आधे भील थे

* अकबर के मेवाड़ जाने का हाल अबुल फजल ने कुछ इस तरह लिखा है कि

"मेवाड़ के बागी राणा का उत्पात हर दिन बढ़ता जा रहा था | शहंशाह के हुक्म मानने के बजाय गुरुर में डूबे राणा ने पहाड़ी लड़ाई इख्तियार करते हुए तबाही मचा रखी थी | राणा और उसके मुल्क को बरबाद करने की खातिर शहंशाह ने फौज को मेवाड़ जाने का हुक्म दिया | एक बहुत बड़ी फौज इकट्ठी हुई | सारे फौजी आदमी और सिपहसालार सर से लेकर पांव तक लोहे के ज़िरहबख्तर पहने हुए थे | दूर से देखने पर ये लोग शीशे जैसे दिखने लगे थे | इस तरह शहंशाह ने मेवाड़ की तरफ कूच किया"

* अगले भाग में कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप द्वारा जारी ताम्रपत्रों के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 42



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 106

"गोगुन्दा का युद्ध"

अगस्त, 1576 ई.


* गोगुन्दा में एक बहुत बड़ा थाना तैनात कर मानसिंह कछवाहा, आसफ खां व काजी खां अकबर के पास चले गए, जहां मानसिंह और आसफ खां की कुछ दिनों तक ड्योढ़ि बन्द कर दी गई अर्थात् शाही दरबार में आने पर प्रतिबन्ध लगाया गया

(ये प्रतिबन्ध इसलिए लगाया गया, क्योंकि अकबर इस बात से नाराज था कि मानसिंह ने महाराणा के खौफ से मेवाड़ में लूटमार नहीं की)

> अकबर का दरबारी लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है "इस वक्त गोगुन्दा में मुगल फौज को जो तकलीफें हो रही थीं, उनकी खबर शहंशाह के पास पहुंची | शहंशाह ने हुक्म दिया कि मानसिंह, आसफ खां और काजी खां बिना किसी को साथ लाये फौरन हाजिर हो जाये | मानसिंह और आसफ खां की कुछ गुस्ताखियों की वजह से शहंशाह ने उनको शाही दरबार में आने से रोक दिया | दूसरी तरफ गाजी खां बदख्शी, मेहतर खां, अलीमुराद उजबेक, खांजकी तुर्क और मुझ (बंदायूनी) को इनाम दिए और ओहदे में तरक्की की | इन सबके अलावा जितने भी सिपहसालार राणा के खिलाफ जंग में थे, सबको बिना कोई सजा दिए छोड़ दिया"

(बंदायूनी के इस बयान से मालूम पड़ता है कि अकबर को हल्दीघाटी युद्ध से सिवाय नुकसान के कुछ हासिल नहीं हुआ)

> अकबर का दरबारी लेखक निजामुद्दीन अहमद बख्शी लिखता है "गोगुन्दा जाने वाले रास्ते इतने मुश्किल थे कि वहां रसद वगैरह पहुंच नहीं पा रही थी | हमारी फौज भूखी मरने लगी | शहंशाह ने मानसिंह को फौरन हाजिर होने का हुक्म दिया | शहंशाह ने तहकीकात करवाई की फौज का क्या हाल है, तो सच में पता चला कि फौज का हाल बहुत बुरा था, फिर भी मानसिंह ने राणा के मुल्क को नहीं लूटा | इस वजह से शहंशाह ने नाराज होकर मानसिंह को दरबार से निकाल दिया | कुछ दिन बाद शहंशाह ने मानसिंह को माफ कर फिर से राणा के मुल्क को बर्बाद करने मेवाड़ भेजा"

सितम्बर, 1576 ई.

> मानसिंह के चले जाने के बाद अकबर ने अपने खास सिपहसालारों को गोगुन्दा भेजा

इस वक्त हल्दीघाटी की लड़ाई लड़ने वाले जीतने भी मुगल जीवित बचे थे, वे सीकरी तो गए ही नहीं | ये सब गोगुन्दा में ही थे | इनके अलावा अलग से और फौज गोगुन्दा भेजी गई |

> महाराणा प्रताप ने अपने राजपूत व भील साथियों की मदद से मेवाड़ से आगरा जाने वाले पहाड़ी रास्ते व नाके बन्द करवा दिये, ताकि गोगुन्दा में तैनात मुगलों तक रसद का सामान ना पहुंचे व गोगुन्दा में तैनात मुगल मेवाड़ से बाहर ना जा पाए

> उदयपुर व खानपुर के इलाकों में महाराणा प्रताप स्वयं घूम-घूमकर देखरेख करते और मुगलों के गिरोह पर मौका देखकर हमले किया करते

अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है "राणा कीका (राणा प्रताप) ने उदयपुर और जौनपुर के बादशाही इलाकों में लूटमार करना शुरु कर दिया, जिससे शहंशाह का ध्यान इस तरफ गया"

(बंदायूनी ने जानकारी के अभाव में खानपुर की जगह गलती से जौनपुर का नाम लिख लिया)

> महाराणा प्रताप ने गोड़वाड़ के परगनों और पश्चिमी मेवाड़ के इलाकों में पूरी तरह नाकेबन्दी करवा दी

> गोगुन्दा में मुगलों के लिए रसद वगैरह आती, तो भील उसे रास्ते में लूट लिया करते

> बनजारे लोग जब भी इन इलाकों में आते, तो महाराणा के सैनिक उन्हें मुगलों के नजदीक भी नहीं जाने देते, क्योंकि मुगल हमेशा बनजारों की तलाश में रहते थे, ताकि उन्हें लूटकर रसद वगैरह ले सके

> मुगल गोगुन्दा में कैदियों की तरह रह रहे थे

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा गोगुन्दा विजय, बादशाही इलाकों में भारी लूटमार व अकबर के मेवाड़ कूच करने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 41




* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 105

जून-अक्टूबर, 1576 ई.


"महाराणा प्रताप के मित्रों द्वारा मुगल विद्रोह"
* महाराणा प्रताप ने अपने 5 मित्रों को पत्र लिखे, जिसमें उन्होंने लिखा कि आप सभी अपने-अपने क्षेत्रों में मुगलों के खिलाफ विद्रोह करें

ये मित्र हैं :-

१) मारवाड़ के राव चन्द्रसेन राठौड़ :-

> जन्म :- 1541 ई.

> पिता :- राव मालदेव राठौड़

> राव चन्द्रसेन ने अकबर के नागौर दरबार में अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना किया था

> महाराणा प्रताप की बहन बाईजीलाल सूरजदे से राव चन्द्रसेन का विवाह हुआ था

> उपनाम :- मारवाड़ का राणा प्रताप, प्रताप का अग्रगामी, भूला बिसरा राजा

> कार्यवाही :- राव चन्द्रसेन राठौड़ के पास मारवाड़ का राज तो नहीं था, लेकिन महाराणा का खत मिलने पर इन्होंने अपने दम पर मारवाड़ के पहाड़ी इलाकों में मुगल छावनियों पर हमले कर लूटमार करना शुरु किया

२) जालौर के नवाब ताज खां :-
> कार्यवाही :- इन्होंने पठान होते हुए भी महाराणा प्रताप का साथ दिया व अरावली के दोनों तरफ लूटपाट व फसाद करना शुरु कर दिया

३) बूंदी के राव दूदा हाडा :-

> ये बूंदी के राव सुर्जन हाडा के बड़े पुत्र थे

> 1569 ई. में जब राव सुर्जन ने अकबर की अधीनता स्वीकार की, तो राव दूदा को भी मुगल दरबार में हाजरी देनी होती थी | मौका देखकर ये वहां से निकले और महाराणा प्रताप का साथ देने मेवाड़ आए |

४) सिरोही के राव सुरताण देवड़ा :-

> जन्म :- 1559 ई.

> इन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में छोटी-बड़ी कुल 52 लड़ाईयां लड़ी, पर एकमात्र "दंताणी के युद्ध" में विजयी हुए, जिसका हाल मौके पर लिखा जाएगा

> इनका नाम इतिहास में एक गुमनाम योद्धा की तरह ही रहा, लेकिन इनके बारे में एक दोहा प्रचलित है

"नाथ उदयपुर न नम्यो, नम्यो न अरबुद नाथ"

> 17 वर्षीय राव सुरताण के पास जब महाराणा का खत पहुंचा, तो इन्होंने देवड़ा राजपूतों को साथ लेकर सिरोही की पहाड़ियों में विद्रोह कर दिया

५) ईडर के राय नारायणदास राठौड़ :-


> ये महाराणा प्रताप के ससुर थे व महाराणा से बराबर सम्पर्क में रहते थे |

> कार्यवाही :- इन्होंने गुजरात-मेवाड़ सीमा व ईडर की पहाड़ियों में मुगल सल्तनत से बगावत का शुभारम्भ कर दिया

* इस तरह हल्दीघाटी युद्ध के बाद मात्र पांच महीनों में महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के साथ-साथ मारवाड़, सिरोही, जालौर, बूंदी व ईडर में अकबर के विरोधी खड़े कर दिए

* इधर जिस वक्त गोगुन्दा में मुगल फौज कैदियों की तरह दिन काट रही थी, तभी महाराणा प्रताप ने बचे-खुचे राजपूतों व भीलों को साथ लेकर गोडवाड़ पर हमला किया व मुगल छावनियों को ध्वस्त कर लूटते हुए कुम्भलगढ़ पहुंचे |

* कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप ने "गोगुन्दा के युद्ध" की योजना बनाई, जिसके बारे में अगले भाग में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 40


महाराणा प्रताप प्रिय हाथी रामप्रसाद के साथ

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 104

जून-जुलाई, 1576 ई.


"महाराणा प्रताप के प्रिय हाथी रामप्रसाद का बलिदान"


> आमेर के कुंवर मानसिंह कछवाहा को हल्दीघाटी की लूट में रामप्रसाद हाथी मिला था, जिसे उसने बंदायूनी के जरिए अकबर तक पहुंचाया

> अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है

"आसफ खां ने लूट में मिले रामप्रसाद हाथी को शहंशाह को तोहफे में भेजने के खातिर उसे मुझे ले जाने को कहा | मानसिंह ने हँसते हुए मुझसे कहा 'अभी तुम्हारा काम खत्म नहीं हुआ है, तुम्हें तो हर लड़ाई में आगे रहना चाहिए' | मैंने कहा 'मेरा यहां का काम तो खत्म हो चुका है, अब मुझे शहंशाह के पास जाना चाहिए' | मानसिंह खुश हुआ और मुस्कुराया | फिर उसने मुझे 300 सवार देकर शहंशाह के पास जाने को कहा | मानसिंह खुद भी शिकार खेलने के मकसद से 20 कोस पर मोही गाँव तक मेरे साथ रहा | मानसिंह ने जगह-जगह शाही थाने बिठा दिए | मानसिंह ने एक सिफारिशी खत देकर मुझको विदा किया और फिर वह लौटकर गोगुन्दा चला गया | मैं रामप्रसाद हाथी को लेकर बागोर और मांडलगढ़ होता हुआ मानसिंह के इलाके आमेर में गया | जहां-जहां से हम निकले, लड़ाई की खबर फैलती गई | रास्ते में लोग मानसिंह की फतह और राणा की हार की खबर सुनकर हम पर यकिन नहीं करते | आमेर में हम लोग 3-4 दिन रहे | मैं शहंशाह के सामने हाजिर हुआ और अमीरों के खत समेत रामप्रसाद हाथी बादशाह को नज़र किया | शहंशाह ने पूछा 'इस हाथी का नाम क्या है ?' | मैंने कहा 'रामप्रसाद' | शहंशाह ने कहा 'इस पर पीर की मेहरबानी हुई है, इसका नाम पीरप्रसाद रखा जाए' | शहंशाह ने कहा 'अमीरों ने तुम्हारी बड़ी तारीफ की, सच-सच बताओ क्या बहादुरी का काम किया तुमने' | मैंने कहा 'शहंशाह के सामने तो ये नौकर सच कहते हुए भी कांपता है, तो सच के अलावा तो कुछ कह ही नहीं सकता है' | शहंशाह ने मुझसे पूछा कि 'क्या तुम्हारे हाथ में भी हथियार थे' | मैंने कहा 'जी हुजूर, मैं और मेरा घोड़ा दोनों के पास हथियार थे' | शहंशाह ने पूछा 'तुम्हे हथियार कैसे मिले' | मैंने कहा 'हुजूर, सैयद अब्दुल्ला खां से मिले' | मैंने सारा हाल कह सुनाया, तब शहंशाह ने अशर्फियों से भरी टोकरी में हाथ डाले और मुझे 96 अशर्फियां दीं | फिर मैं अब्दुल नबी के पास गया | अब्दुल नबी ने मुझसे पूछा 'तुमने राणा से लड़ाई के वक्त मेरी तरफ से खुदा से दुआ मांगी या नहीं' | मैंने कहा 'मैंने तुम्हारी तरफ से उस वक्त ये दुआ मांगी थी कि

ए खुदा, जो मुहम्मद के मज़हब की हिफाज़त करता है, तू भी उसकी हिफाज़त कर और जो उस मज़हब की हिफाज़त नहीं करता, तू भी उसकी हिफाज़त मत कर |"

> रामप्रसाद ने अन्न-जल का त्याग किया व 18 दिन बाद इस स्वामिभक्त हाथी ने अपने प्राण त्याग दिये

"मेवाड़ की वैणगढ़ विजय"

महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह जी ने मेवाड़ का साथ देते हुए भीण्डर के पास स्थित वैणगढ़ दुर्ग पर तैनात मुगलों को मार-भगाकर कब्जा किया

"मानसिंह की कार्यवाही"

> मानसिंह ने महाराणा प्रताप पर निगरानी रखने के लिए कुतुबुद्दीन मुहम्मद खां, कुलीज खां व आसफ खां को नियुक्त किया

> मानसिंह ने एक सिपहसालार के नेतृत्व में फौजी टुकड़ी भेजकर आसपास के इलाके में जो भी लोग मिले, उनको बन्दी बनाने का आदेश दिया

इस सिपहसालार ने कुछ लोगों को बन्दी बनाया

"मुगल थाने"

मुगल फौज जब किसी क्षेत्र पर अधिकार करती तो वहां शाही थाने तैनात किए जाते थे | इस तरह के थानों में 100 से 1000 सैनिकों का लश्कर होता था |

मेवाड़ में गोगुन्दा, मोही, मदारिया, उदयपुर, केलवाड़ा, देबारी प्रमुख मुगल थाने होते थे, जहां लश्कर 1000 से भी ज्यादा होता था |

छोटे मुगल थानों में 100-200 सैनिकों का लश्कर होता था

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के मेवाड़ से बाहर के 5 प्रमुख मित्रों द्वारा मुगल विद्रोह के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 39


हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के समक्ष उनके सामन्त स्वामिभक्ति का आश्वासन देते हुए

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 103

जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी युद्ध के बाद मेवाड़ के प्रमुख सामन्त"


1) झाड़ौल के राजराणा देदा झाला :- ये हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले झाला मान/झाला बींदा के पुत्र थे | महाराणा प्रताप जब कोल्यारी गांव में उपचार करवा रहे थे, तब उन्होंने कुंवर अमरसिंह को झाड़ौल भेजकर देदा जी को कोल्यारी बुलवाया | महाराणा ने देदा जी को झाड़ौल की राजगद्दी का तिलक देकर तलवारबन्दी की रस्म पूरी की | महाराणा ने राजराणा देदा को दरबार में अपने मुंह बराबर बैठक प्रदान की |

2) घाणेराव के ठाकुर गोपालदास राठौड़

3) भामाशाह कावड़िया

4) ताराचन्द कावड़िया :- ये भामाशाह के भाई थे

5) महासहानी रामा :- महाराणा प्रताप ने इनको मेवाड़ का प्रधान घोषित किया |

6) सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत

7) रामा सांदू (चारण कवि)

8) गोरधन बोगस (चारण कवि)

9) पानरवा के राणा पूंजा भील :- हल्दीघाटी युद्ध के बाद छापामार युद्धों में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा |

10) मांडण कूंपावत

11) देवगढ़ के दूसरे रावत दूदा चुण्डावत :- ये हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले रावत सांगा चुण्डावत के पुत्र थे |

12) बनोल के ठाकुर तेजमल राठौड़

13) जवास के 9वें रावत बाघसिंह

14) कानोड़ के रावत भाण सारंगदेवोत :- ये हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले रावत नैतसिंह सारंगदेवोत के पुत्र थे |

15) बेदला के बलभद्र सिंह चौहान

16) बिजौलिया के राव शुभकरण पंवार :- ये मेवाड़ की महारानी अजबदे बाई के भाई थे | इनके पिता राव माम्रख जी व दो भाई (पहाडसिंह, डूंगरसिंह) हल्दीघाटी युद्ध में काम आए |

17) महता नरबद

18) भाण सोनगरा चौहान :- ये महाराणा प्रताप के दूसरे मामा थे |

19) बेगूं के पहले रावत गोविन्ददास चुण्डावत

20) सरदारगढ़ के 9वें ठाकुर गोपालदास डोडिया

21) बदनोर के ठाकुर मुकुन्ददास मेड़तिया

22) देलवाड़ा के चौथे राजराणा कल्याणसिंह झाला :- ये हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले मानसिंह झाला के पुत्र थे |

23) देलवाड़ा के शत्रुसाल झाला :- ये महाराणा प्रताप के भाणजे व कल्याणसिंह झाला के छोटे भाई थे |

23) कोठारिया के रावत पृथ्वीराज चौहान

24) देवलिया महारावत तेजसिंह

"हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप का साथ देने वाले राजपरिवार के प्रमुख सदस्य"

1) महाराज शक्तिसिंह :- ये हल्दीघाटी युद्ध के बाद मुगल सेवा छोड़कर महाराणा का साथ देने मेवाड़ आ गए |

2) कुंवर भगवानदास :- ये महारानी अजबदे बाई के दूसरे पुत्र व कुंवर अमरसिंह के छोटे भाई थे |

3) कुंवर शैखासिंह :- ये महाराणा प्रताप व रानी फूल कंवर राठौड़ के पुत्र थे |

4) कुंवर पुरणमल :- ये महाराणा प्रताप के 11वें पुत्र थे | महाराज (बाबा) इनकी उपाधि है |

* अगले भाग में महाराणा प्रताप के प्रिय हाथी रामप्रसाद के देहान्त के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 38


गोगुन्दा में कुंवर मानसिंह कछवाहा


* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 102

(420वीं पुण्यतिथि पर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप को शत्-शत् नमन)


23 जून, 1576 ई.

"मानसिंह का गोगुन्दा पर आक्रमण, विजय व दयनीय स्थिति"


> हल्दीघाटी युद्ध के दूसरे दिन आमेर का कुंवर मानसिंह कछवाहा शाही फौज के साथ गोगुन्दा पहुंचा

इस वक्त गोगुन्दा में महाराणा प्रताप के 20 लोग ही थे, जो कि महलों की सुरक्षा के लिए रखे गए थे

ये सभी भागने के बजाय 15,000 की फौज से लड़ने सामने आए और वीरगति को प्राप्त हुए

अब्दुल कादिर बंदायूनी इस वक्त यहीं मौजूद था

> बंदायूनी लिखता है

"हमारी फौज गोगुन्दा में राणा के मकान पर पहुंची, जहां तकरीबन 20 लोग ही थे | जैसा कि राजपूतों में रिवाज होता है कि जब कोई दूसरा रास्ता न हो तो खुल के सामने अाकर लड़ते थे | ये सभी कत्ल हुए"

"गोगुन्दा में मुगलों की स्थिति"

> मानसिंह गोगुन्दा में शाही फौज के साथ जहां ठहरा हुआ था, उसके चारों ओर उसने एक दीवार बनवा दी, जिसे घोड़े भी ना लांघ सके

मानसिंह ने ये दीवार इसलिए बनवाई क्योंकि उसे भय था कि महाराणा प्रताप कहीं उस पर अचानक हमला ना कर दे

> अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है

"मानसिंह और दूसरे अमीरों ने राणा के खौफ से गांव की चौतरफा खाई खुदवाकर इतनी ऊँची दीवार बनवा दी, जिसे सवार भी न लांघ सके | गाँव के तमाम मोहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी | शाही फौज समेत सारे सिपहसालार कैदियों के मुवाफिक दिन काट रहे थे"
गोगुन्दा में भूख से बेहाल मानसिंह दीवार बनवाता हुआ

> गोगुन्दा में इन दिनों खाने के लिए सिर्फ आम थे | कईं दिनों तक सिर्फ आम खाने के कारण कई मुगल सैनिक बीमार पड़ गए |

> मुगल फौज को गोगुन्दा में अपने ही घोड़े काट कर खाने पड़े

> बंदायूनी लिखता है "इस इलाके में एक-एक सेर का आम होता है, पर इसमें मिठास और महक ज्यादा नहीं होती | फौजी आदमी माँस और आम खा-खाकर बीमार पड़ गए"

> मुगलों की ये दुर्दशा महाराणा प्रताप के भील सैनिकों द्वारा रसद का सामान लूटने से व गोगुन्दा के आसपास फसलें खत्म कर वीरान कर देने से हुई

> युद्ध में मारे जाने वाले सैनिकों, हाथियों व घोड़ों की सूची तैयार की जा रही थी कि तभी सैयद अहमद खान ने कहा कि

"मुर्दों की फेहरिस्त बनाने से ज्यादा जरुरी उनके लिए रसद का इन्तजाम करना है, जो जिन्दा हैं"

(मुगलों की इस दुर्दशा का ये हाल निजामुद्दीन अहमद बख्शी ने लिखा है, जो इस वक्त वहीं मौजूद था)

* अगले भाग में हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के प्रमुख सामन्तों (युद्ध में जीवित रहने वाले व वीरगति पाने वालों के उत्तराधिकारी) के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 37


महाराणा प्रताप कोल्यारी गांव में उपचार करवाते हुए

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 101

22 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी युद्ध के बाद"


* हल्दीघाटी युद्ध के अगले दिन मुगलों ने युद्धभूमि में प्रवेश किया और जायज़ा लिया की हर एक ने कैसा काम किया

जून, 1576 ई.

"कोल्यारी गांव में उपचार"


> महाराणा प्रताप कालोडा गांव से रवाना हुए और आहोर होते हुए कोल्यारी गाँव में पहुंचे

> महाराणा प्रताप ने कोल्यारी गाँव को प्राथमिक उपचार के लिए विकसित कर रखा था

> कोल्यारी में महाराणा ने अपना, अपने सैनिकों का व जख्मी घोड़ों का उपचार करवाया

"छापामार युद्ध नीति"


> महाराणा प्रताप कोल्यारी से कुम्भलगढ़ पधारे

कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप ने अपने सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ करना प्रारम्भ किया

> महाराणा प्रताप की कुल फौज 3,000 व अकबर की कुल फौज 2,00,000 थी, जिसके अलावा तकरीबन सारे राजा-महाराजा उसके मातहत थे, इसलिए आमने-सामने की लड़ाई सम्भव न थी

> महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ में अपनी सैनिक नीति बनाई कि जिसे जीता न जा सके, उसके आगे जान देना व्यर्थ है, परन्तु न उसे चैन से कहीं ठहरने दिया जाए और न ही जहां भी उसका कब्जा ढीला दिखाई दे, उसे उस जगह टिकने दिया जाए

> छापामार युद्ध के साथ ही शुरु हुआ महाराणा प्रताप, उनके परिवार व उनके साथियों का भीषण संघर्षपूर्ण जीवन

"ए हाय जता करता पगल्यां,
फूलां री कंवळी सेजां पर |
बै आज रुळै भूखा-तिसियां,
हिन्दवाणै सूरज रा टाबर ||"

> मेवाड़ का राजघराना हिन्दुस्तान के सबसे समृद्ध राजघरानों में से एक था, जिसकी अमीरी का बखान मुगल भी करते थे | राणा सांगा के समय 10 करोड़ सालाना आमदनी वाला मुल्क अब लगातार संघर्ष से जर्जर हो चुका था |

> विश्व के सबसे प्राचीन राजघराने के स्वाभिमानी सूरज ने जंगलों की तरफ प्रस्थान किया और प्रतिज्ञा की कि

"जब तक चित्तौड़ विध्वंस और हल्दीघाटी की पराजय का प्रतिशोध लेकर मेवाड़ को स्वाधीन नहीं करा देता, तब तक घास ही मेरा बिछौना, जंगल ही मेरे महल और पत्तल-दूने ही मेरे भोजन करने के पात्र होंगे"


> हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने फिर से राजपूतों और भीलों को इकट्ठा करना शुरु किया

इस युद्ध के बाद महाराणा को अफगानों का साथ नहीं मिला

> हल्दीघाटी का युद्ध अन्त नहीं, शुरुआत थी

* अगले भाग में मानसिंह द्वारा गोगुन्दा पर आक्रमण करने के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 36



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 100

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"


"हल्दीघाटी युद्ध का अन्तिम भाग"

"रक्त तलाई"


> हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से 150 प्रमुख योद्धाओं सहित बहुत से वीर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए

> इस युद्ध में 150 खास मुगल सिपहसालार और 350 कछवाहा सिपहसालार हजारों सैनिकों सहित मारे गए

> हल्दीघाटी युद्ध के तुरन्त बाद बारिश हुई, जिससे दोनों तरफ के हजारों सैनिकों के रक्त ने खमनौर गांव में एक छोटी तलाई का रुप ले लिया, जिसे आज रक्त तलाई के नाम से जाना जाता है | वर्तमान में रक्त तलाई को एक गार्डन के रुप में विकसित किया हुआ है, जहां झाला मान, रामशाह तोमर, शालिवाहन तोमर की छतरियां, सती माता का स्थान व हाकिम खां सूर की मजार है |

* अकबर ने मुहम्मद खान को हल्दीघाटी युद्ध का मुआयना करने भेजा

मुहम्मद खान ने खमनौर में युद्धभूमि का जायजा लिया और लौटकर अकबर को विजय की खबर सुनाई

इस वक्त एक मुगल फौज बंगाल पर चढाई कर रही थी

अकबर ने इस फौज का हौंसला बढ़ाने के लिए हल्दीघाटी विजय की खबर सैयद अब्दुल्ला खां के जरिए भिजवाई

"कोशीथल महारानी की बहादुरी"

> हल्दीघाटी युद्ध से कुछ समय पहले मेवाड़ के कोशीथल ठिकाने के सामन्त का देहान्त हुआ | हल्दीघाटी युद्ध के समय कोशीथल के स्वर्गीय सामन्त के पुत्र छोटे थे, इसलिए युद्ध में भाग नहीं ले सकते थे |

ऐसी परिस्थिति में कोशीथल की महारानी ने युद्ध के लिए ज़िरहबख्तर पहने और इस तरह बहादुरी दिखाई कि खुद मेवाड़ के योद्धा भी उनको पहचान नहीं पाए |

> युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप घायल अवस्था में उपचार करवाने गाँव कालोड़ा में पहुंचे, तो वहां उन्होंने घायल सैनिकों की मदद करती हुई सैनिक वेश में एक स्त्री देखी | महाराणा प्रताप को जब कोशीथल महारानी के युद्ध में भाग लेने की बात पता चली तो उन्होंने महारानी की वीरता की काफी प्रशंसा की |

> महाराणा प्रताप ने कोशीथल महारानी से कहा कि "आप क्या पारितोषिक प्राप्त करना चाहेंगी"

महारानी की इच्छानुसार महाराणा प्रताप ने उनको एक कलंगी प्रदान की, जो 'हूंकार की कलंगी' के नाम से जानी जाती है | इस घटना के कई वर्षों बाद तक कोशीथल ठिकाने के ठाकुर इस कलंगी को अपनी पगड़ी पर लगाकर दरबार में आते रहे |

(हूंकार नाम का एक पक्षी होता है, जिसके पंखों की कलंगी अपना महत्व रखती है)

"हल्दीघाटी युद्ध के परिणाम"

हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप पराजित हुए, पर खुद मुगल लेखकों ने भी लिखा है कि बादशाही फौज की विजय नाम मात्र की थी

जब मुगल फौज कोई युद्ध जीत जाती थी, तो उस हारे हुए प्रदेश को लूट लिया करती, परन्तु हल्दीघाटी विजय से मुगलों को सिवाय रामप्रसाद हाथी के कुछ हाथ न लगा

यहां तक की हल्दीघाटी युद्ध के तुरन्त बाद मुगलों को महाराणा का इतना खौफ था कि उन्होंने महाराणा प्रताप का पीछा तक नहीं किया

अबुल फजल ने हल्दीघाटी युद्ध के वर्णन में शुरुआत में ही लिखा था कि 'इस जंग का मकसद राणा और उसके मुल्क को जड़ समेत उखाड़ना था'

मुगल ना तो मेवाड़ प्रदेश में लूटमार कर पाए और ना ही महाराणा प्रताप को मार पाए

यकिनन इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से बहुत से नामी योद्धाओं ने अपने बलिदान दिए, परन्तु मेवाड़ इस वक्त सदी के सबसे महान योद्धा के नेतृत्व में था

(हल्दीघाटी प्रकरण समाप्त)

* अगले भाग में महाराणा प्रताप द्वारा छापामार युद्ध पद्धति अपनाने व प्रताप प्रतिज्ञा के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 35



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 99

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"


"हल्दीघाटी युद्ध में जीवित बचने वाले प्रमुख योद्धा"


1) घाणेराव के ठाकुर गोपालदास राठौड़ :- उदयपुर स्थित प्रताप गौरव केन्द्र में हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले योद्धाओं की सूची में इनका नाम भी लिखा गया है, जो कि सही नहीं है | दरअसल गोपालदास राठौड़ को हल्दीघाटी युद्ध में कुल 27 घाव लगे व जीवित रहे | बाद में कुम्भलगढ़ के युद्ध में भी महाराणा प्रताप के साथ रहे |

2) कुंवर शैखासिंह :- ये महाराणा प्रताप व रानी फूल कंवर राठौड़ के पुत्र थे |

3) भामाशाह कावड़िया

4) ताराचन्द कावड़िया :- ये भामाशाह के भाई थे

5) कोशीथल की महारानी :- ये हल्दीघाटी युद्ध में भाग लेने वाली एकमात्र क्षत्राणी थीं | इनके बारे में अगले भाग में लिखा जाएगा |

6) सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत

7) रामा सांदू (चारण कवि) - इनका नाम हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वालों में लिया जाता है, जो कि सही नहीं है | क्योंकि हल्दीघाटी युद्ध के बारे में रामा सांदू के लिखे हुए दोहे मिलते हैं | रामा सांदू धरमा सांदू के पुत्र थे |

8) गोरधन बोगस (चारण कवि) - इन्होंने बाद में कुम्भलगढ़ के युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया |

9) पानरवा के राणा पूंजा भील :- इनका नाम भी वीरगति पाने वालों में लिया जाता है, जबकि इन्होंने छापामार युद्धों में महाराणा प्रताप का भरपूर साथ दिया | राणा पूंजा का देहान्त हल्दीघाटी युद्ध के 34 वर्ष बाद हुआ |

10) मांडण कूंपावत :- इन्होंने बाद में गोगुन्दा के युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया |

11) देवगढ़ के कुंवर दूदा चुण्डावत :- ये रावत सांगा चुण्डावत के पुत्र थे |

12) जवास के रावत बाघसिंह चौहान

* इन योद्धाओं ने युद्ध में भाग तो लिया, परन्तु इनके वीरगति पाने या न पाने के विषय में सन्देह है :-

1) मानसिंह :- ये महाराणा प्रताप के भाई थे

2) बनोल के ठाकुर तेजमल राठौड़

3) शेरखान चौहान

4) सादड़ी के ठाकुर किशनदासोत कावेड़िया

5) गोपालदास मेड़तिया

6) नगा

7) संभरी नरेश संग्रामसिंह

8) वागड़ के नाथा चौहान

* अगला भाग हल्दीघाटी युद्ध का अन्तिम भाग होगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 34

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 98

21 जून, 1576 ई.


"हल्दीघाटी का युद्ध"


"हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले प्रमुख मेवाड़ी योद्धा"

1) ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर

2) कुंवर शालिवाहन तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र व महाराणा प्रताप के बहनोई)

3) कुंवर भान तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र)

4) कुंवर प्रताप तोमर (रामशाह तोमर के पुत्र)

5) भंवर धर्मागत तोमर (शालिवाहन तोमर के पुत्र)

6) दुर्गा तोमर (रामशाह तोमर के साथी)

7) बाबू भदौरिया (रामशाह तोमर के साथी)

8) खाण्डेराव तोमर (रामशाह तोमर के साथी)

9) बुद्ध सेन (रामशाह तोमर के साथी)

10) शक्तिसिंह राठौड़ (रामशाह तोमर के साथी)

11) विष्णुदास चौहान (रामशाह तोमर के साथी)

12) डूंगर (रामशाह तोमर के साथी)

13) कीरतसिंह (रामशाह तोमर के साथी)

14) दौलतखान (रामशाह तोमर के साथी)

15) देवीचन्द चौहान (रामशाह तोमर के साथी)

16) छीतर सिंह चौहान (हरिसिंह के पुत्र व रामशाह तोमर के साथी)

17) अभयचन्द्र (रामशाह तोमर के साथी)

18) राघो तोमर (रामशाह तोमर के साथी)

19) राम खींची (रामशाह तोमर के साथी)

20) ईश्वर (रामशाह तोमर के साथी)

21) पुष्कर (रामशाह तोमर के साथी)

22) कल्याण मिश्र (रामशाह तोमर के साथी)

23) बदनोर के ठाकुर रामदास राठौड़ (वीरवर जयमल राठौड़ के 7वें पुत्र) :- ये अपने 9 साथियों समेत काम आए |

24) बदनोर के कुंवर किशनसिंह राठौड़ (ठाकुर रामदास राठौड़ के पुत्र)

25) जालौर के मानसिंह सोनगरा चौहान (महाराणा प्रताप के मामा) :- ये अपने 11 साथियों समेत काम आए |

26) कान्ह/कान्हा (महाराणा प्रताप के भाई) :- इनके वंशज आमल्दा व अमरगढ़ में हैं |

27) कल्याणसिंह/कल्ला (महाराणा प्रताप के भाई)

28) कानोड़ के रावत नैतसिंह सारंगदेवोत

29) केशव बारठ (कवि) :- ये सोन्याणा वाले चारणों के पूर्वज थे |

30) जैसा/जयसा बारठ (कवि) :- ये भी सोन्याणा वाले चारणों के पूर्वज थे |

31) कान्हा सांदू (चारण कवि)

32) कोठारिया के पृथ्वीराज चुण्डावत (पत्ता चुण्डावत के बड़े भाई)

33) आमेट के ठाकुर कल्याणसिंह चुण्डावत (वीरवर पत्ता चुण्डावत के पुत्र) - इनके पीछे रानी बदन कंवर राठौड़ सती हुईं | रानी बदन कंवर मेड़ता के जयमल राठौड़ की पुत्री थीं |

34) देसूरी के खान सौलंकी (ठाकुर सावन्त सिंह सौलंकी के पुत्र)

35) नीमडी के महेचा बाघसिंह राठौड़ कल्लावत (मल्लीनाथ के वंशज)

36) देवगढ़ के पहले रावत सांगा चुण्डावत :- ये वीरवर पत्ता चुण्डावत के पिता जग्गा चुण्डावत के भाई थे | रावत सांगा देवगढ़ वालों के मूलपुरुष थे |

37) देवगढ़ के कुंवर जगमाल चुण्डावत (रावत सांगा चुण्डावत के पुत्र)

38) शंकरदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल)

39) रामदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल)

40) केनदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल)

41) नरहरीदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल) :- ये शंकरदास राठौड़ के पुत्र थे |

42) नाहरदास जैतमालोत राठौड़ (ठि. बनोल) :- ये शंकरदास राठौड़ के पुत्र थे |

43) राजपुरोहित नारायणदास पालीवाल के 2 पुत्र

44) किशनदास मेड़तिया

45) सुन्दरदास

46) जावला

47) प्रताप मेड़तिया राठौड़ (वीरमदेव के पुत्र व वीरवर जयमल राठौड़ के भाई)

48) बदनोर के कूंपा राठौड़ (वीरवर जयमल राठौड़ के पुत्र)

49) राव नृसिंह अखैराजोत (पाली के अखैराज के पुत्र)

50) प्रयागदास भाखरोत

51) मानसिंह

52) मेघराज

53) खेमकरण

54) भगवानदास राठौड़ (केलवा के ईश्वरदास राठौड़ के पुत्र)

55) नन्दा पडियार

56) पडियार सेडू

57) साँडू पडियार

58) अचलदास चुण्डावत

59) रावत खेतसिंह चुण्डावत के पुत्र

60) झाड़ौल के राजराणा झाला मान/झाला बींदा

61) बागड़ के ठाकुर नाथुसिंह मेड़तिया

61) देलवाड़ा के मानसिंह झाला

62) सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया

63) सरदारगढ़ के कुंवर हम्मीर सिंह डोडिया (ठाकुर भीमसिंह के पुत्र)

64) सरदारगढ़ के कुंवर गोविन्द सिंह डोडिया (ठाकुर भीमसिंह के पुत्र)

65) सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया के 2 भाई

66) पठान हाकिम खां सूर (शेरशाह सूरी के वंशज, मायरा स्थित शस्त्रागार के प्रमुख व मेवाड़ के सेनापति)

67) मोहम्मद खान पठान

68) जसवन्त सिंह

69) कोठारिया के राव चौहान पूर्बिया

70) रामदास चौहान

71) राजा संग्रामसिंह चौहान

72) विजयराज चौहान

73) राव दलपत चौहान

74) दुर्गादास चौहान (परबत सिंह पूर्बिया के पुत्र)

75) दूरस चौहान (परबत सिंह पूर्बिया के पुत्र)

76) सांभर के राव शेखा चौहान

77) हरिदास चौहान

78) बेदला के भगवानदास चौहान (राव ईश्वरदास के पुत्र)

79) शूरसिंह चौहान

80) रामलाल

81) कल्याणचन्द मिश्र

82) प्रतापगढ़ के कुंवर कमल सिंह

83) धमोतर के ठाकुर कांधल जी :- देवलिया महारावत बीका ने अपने भतीजे ठाकुर कांधल जी को हल्दीघाटी युद्ध में लड़ने भेजा था |

84) अभयचन्द बोगसा चारण

85) खिड़िया चारण

86) रामसिंह चुण्डावत (सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत के भाई)

87) प्रतापसिंह चुण्डावत (सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत के भाई)

88) गवारड़ी (रेलमगरा) के मेनारिया ब्राह्मण कल्याण जी पाणेरी

89) श्रीमाली ब्राह्मण :- इनके पीछे इनकी एक पत्नी सती हुईं | रक्त तलाई (खमनौर) में इन सती माता का स्थान अब तक मौजूद है |

90) कीर्तिसिंह राठौड़

91) जालमसिंह राठौड़

92) आलमसिंह राठौड़

93) भवानीसिंह राठौड़

94) अमानीसिंह राठौड़

95) रामसिंह राठौड़

96) दुर्गादास राठौड़

97) कानियागर के मानसिंह राठौड़

98) राघवदास

99) गोपालदास सिसोदिया

100) मानसिंह सिसोदिया

101) राजा विट्ठलदास

102) भाऊ

103) पुरोहित जगन्नाथ

104) पडियार कल्याण

105) महता जयमल बच्छावत

106) महता रतनचन्द खेमावत

107) महासहानी जगन्नाथ

108) पुरोहित गोपीनाथ

109) बिजौलिया के राव मामरख पंवार (महाराणा प्रताप के ससुर व महारानी अजबदे बाई के पिता)

110) बिजौलिया के कुंवर डूंगरसिंह पंवार (महारानी अजबदे बाई के भाई)

111) बिजौलिया के कुंवर पहाडसिंह पंवार (महारानी अजबदे बाई के भाई)

112) ताराचन्द पंवार (खडा पंवार के पुत्र)

113) सूरज पंवार (खडा पंवार के पुत्र)

114) वीरमदेव पंवार

115) राठौड़ साईंदास पंचायनोत जेतमालोत (कल्ला राठौड़ के पुत्र) :- ये अपने 13 साथियों समेत काम आए |

116) मेघा खावडिया (राठौड़ साईंदास के साथी)

117) सिंधल बागा (राठौड़ साईंदास के साथी)

118) दुर्गा चौहान (राठौड़ साईंदास के साथी)

119) वागडिया (राठौड़ साईंदास के साथी)

120) जयमल (राठौड़ साईंदास के साथी)

121) नागराज

* अगले भाग में हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से जीवित रहने वाले प्रमुख योद्धाओं के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 33

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 97

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"


* मेवाड़ी ख्यातों के अनुसार महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी में तीरों के अलावा 7 गहरे घाव लगे
(3 भाले से, 3 तलवार से, 1 बन्दूक की गोली)

* तबकात-ए-अकबरी में निजामुद्दीन अहमद बख्शी लिखता है

"राणा कीका तब तक बड़ी बहादुरी से लड़ता रहा, जब तक कि वह तीरों और भालों की चोटों से जख्मी न हो गया"

* अबुल फजल लिखता है "गर्मियों के सबब से गनीम (लूटेरे) का पीछा शाही फौज ने नहीं किया"

(गनीम यहां महाराणा प्रताप को कहा गया है)

* 'अकबरी दरबार' में मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद लिखता है

"नमक हलाल मुगल और मेवाड़ के सूरमा ऐसे जान तोड़ कर लडे़ कि हल्दीघाटी के पत्थर इंगुर हो गए | पर मेवाड़ी फौज की बहादुरी उस फौज के सामने कब तक टिकती, जिसमें अनगिनत तोपें और रहकलें आग बरसाती थीं और ऊँटों के रिसाले आंधी की तरह दौड़ते थे | हालांकि राणा की फौज हार गई, पर उस वक्त राणा के लिए उसका बचकर निकलना ही बहुत बड़ी फतह थी"

"स्वामिभक्त चेतक का बलिदान"

> महाराणा प्रताप इस बात से अनजान थे कि जख्मी चेतक महज 3 पैरों पर चल रहा है | आगे एक चौड़ा नाला आ गया |

"आगे नदियाँ पड़ी अपार, घोड़ा कैसे करावे पार |
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार ||"


> अपने स्वामी की जान बचाने के बाद चेतक ने एक इमली के पेड़ के नीचे अपना बलिदान दे दिया, तब से इस इमली का नाम "खोड़ी इमली" पड़ गया | माना जाता है कि आज भी इस इमली का ठूंठ मौजूद है |

> इस तरह महाराणा प्रताप और चेतक का साथ चार वर्ष (1572-76 ई.) तक रहा


> बलीचा गाँव में स्वामिभक्त चेतक की समाधि स्थित है

"महाराणा प्रताप व महाराज शक्तिसिंह का मिलन"

> महाराणा प्रताप के पीछे आ रहे खुरासन खां और मुल्तान खां को मारकर शक्तिसिंह जी ने महाराणा से भेंट की व माफी मांगी

(हालांकि इस समय महाराणा प्रताप अकेले नहीं थे | उनके साथ कुछ सामन्त भी थे | महाराज शक्तिसिंह जी ने इस घटना के बाद 18 वर्षों तक महाराणा प्रताप का साथ दिया)

> महाराणा प्रताप, शक्तिसिंह जी व सामन्तों ने स्वामिभक्त चेतक का अन्तिम संस्कार किया

* महाराणा प्रताप घायल अवस्था में एक मूर्ति के पास आकर रुके | ये मूर्ति हरिहर (भगवान शिव व भगवान विष्णु के सम्मिलित रुप) की थी | ये मूर्ति वर्तमान में हरिहर मन्दिर में स्थापित है |
महाराणा प्रताप ने इसी मूर्ति के पास बैठकर विश्राम किया और यहीं पर उन्हें सूचना मिली की झाला मान/झाला बींदा वीरगति को प्राप्त हुए | महाराणा प्रताप ने झाला मान/झाला बींदा की याद में उस स्थान का नाम "बिदराणा" रख दिया, जो कालान्तर में "बदराणा" हो गया | इस स्थान पर इस मुर्ति की स्थापना करवाकर महाराणा प्रताप ने हरिहर मन्दिर का निर्माण करवाया |

* अगले भाग में हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले लगभग सवा सौ प्रमुख योद्धाओं के नाम लिखे जाएंगे

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 32

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास

रक्त तलाई (खमनौर) में स्थित कुंवर शालिवाहन तोमर की छतरी


* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 96

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"


* महाराणा प्रताप और हाकीम खां सूर की फौजी टुकड़ियाँ जब मिलीं, तब महाराणा प्रताप युद्धभूमि छोड़ने को तैयार नहीं थे

हाकीम खां सूर ने परिस्थिति को समझते हुए चेतक की रास अपने हाथ में लेकर उसका रुख पहाड़ियों की तरफ कर दिया

"हाकिम खां सूर का बलिदान"

> फारसी तवारिखों में अबुल फजल, बंदायूनी, निजामुद्दीन वगैरह ने हाकीम खां सूर के युद्ध मैदान में वीरगति पाने का उल्लेख नहीं किया है, पर मेवाड़ी ख्यातें उनके वीरगति पाने का उल्लेख करती हैं |
पठान हाकिम खां सूर

> दरअसल हाकीम खां जख्म के चलते घाटी में एेसी जगह वीरगति को प्राप्त हुए जहां बंदायूनी की नजर नहीं पड़ी |

> मेवाड़ी ख्यातों के अनुसार हाकिम खां सूर रक्त तलाई से तीन किलोमीटर दूर वीरगति को प्राप्त हुए, जहां से उनके पार्थिव शरीर को उनका घोड़ा रक्त तलाई में ले आया |
रक्त तलाई स्थित हाकिम खां सूर की मजार

> हाकीम खां सूर की मजार रक्त तलाई में स्थित है, जहाँ इन्हें तलवार समेत दफनाया गया, क्योंकि शहीद होने के बाद भी इस अफगान वीर के हाथ से तलवार नहीं छुड़ाई जा सकी |

"झाला मान का बलिदान"

> झाड़ौल के झाला मान/झाला बींदा महाराणा प्रताप के छत्र-चँवर धारण कर बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए
महाराणा प्रताप के छत्र-चँवर धारण करते हुए झाला मान

> रक्त तलाई (खमनौर) में झाला मान की छतरी अब तक मौजूद है
रक्त तलाई स्थित झाला मान की छतरी

> झाला मान के पीछे झाड़ौल में इनकी दो रानियाँ सती हुईं, जिनके नाम इस तरह है :-

१) रामपुरा की हरकंवर चन्द्रावत (उदयसिंह जी की पुत्री)

२) जुनिया की राजकंवर राठौड़ (पृथ्वीसिंह जी की पुत्री)

"तोमर वंश का बलिदान"


> ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर ने अपने 3 पुत्रों (कुंवर शालिवाहन, कुंवर भान, कुंवर प्रताप) व एक पौत्र (धर्मागत) व 300 तोमर साथियों के साथ युद्ध में भाग लिया और सभी वीरगति को प्राप्त हुए

> हल्दीघाटी युद्ध में तोमर वंश अन्त तक टिका रहा

> राजा रामशाह तोमर आमेर के जगन्नाथ कछवाहा के साथ मुकाबले में वीरगति को प्राप्त हुए

> महाराणा प्रताप के बहनोई कुंवर शालिवाहन तोमर महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए

> प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है "यहाँ राजा रामशाह तोमर ने जिस तरह अपना जज्बा दिखाया, उसको लिख पाना मेरी कलम के बस की बात नहीं | रामशाह अपने तीन बेटों समेत बहादुरी से लड़ता हुआ दोजख में गया | उसके खानदान का कोई वारिस नहीं बचा"
राजा रामशाह तोमर

(हालांकि बंदायूनी को इनकी ज्यादा जानकारी नहीं थी | असल में राजा रामशाह तोमर के एक पुत्र जीवित थे, जिन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया था, ताकि वंश आगे बढ़ सके)

* अगले भाग में स्वामिभक्त चेतक के बलिदान, महाराणा प्रताप व महाराज शक्तिसिंह के मिलन के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 31

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास

रामप्रसाद व मुगल हाथी के बीच लड़ाई

* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 95

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"


* जंग के दौरान एक दिलचस्प वाक्या हुआ, जिसे मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी कुछ इस तरह लिखता है :-

"मैंने आसफ खां से पूछा कि मेवाड़ी राजपूतों और कछवाहों में फर्क करना मुश्किल हो रहा है, मैं किस पर निशाना लगाउँ | आसफ खां ने कहा 'दोनों ओर से कोई भी राजपूत मरे, फायदा इस्लाम का ही है, तुम बेखौफ होकर निशाना लगाओ' | वहां भीड़ इतनी ज्यादा थी कि मेरा एक भी वार खाली नहीं गया"

"हाथियों की भिड़न्त"
* महाराणा प्रताप की तरफ से लगभग 100 हाथियों ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया, जिनमें से प्रमुख हैं :- रामप्रसाद, लूणा, चक्रबाप, खांडेराव

* लूणा का बलिदान :-

> बंदायूनी लिखता है "मानसिंह के ठीक पीछे वाले हाथी पर हाथियों का दारोगा हुसैन खां सवार होकर जंग में शामिल हुआ | कुंवर मानसिंह ने अपने हाथी के महावत की जगह बैठकर बड़ी बहादुरी दिखाई"

> अबुल फजल लिखता है "दुश्मन (राणा) के हाथी लूणा का सामना करने की खातिर जमाल खां शाही हाथी गजमुक्त को आगे लेकर आया | इन दो पहाड़ जैसे हाथियों की भिड़न्त इतनी खतरनाक हुई, कि सब घबरा गए | लूणा ने शाही हाथी गजमुक्त को जख्मी कर दिया"

> लूणा के महावत को बन्दूक की गोली लगी, कुछ देर बाद लूणा ने भी अपने प्राण त्याग दिए

* रामप्रसाद की बहादुरी :-

> 'रामप्रसाद' महाराणा प्रताप का प्रिय हाथी था | इस हाथी की मांग अकबर ने सन्धि प्रस्तावों के जरिए की थी, पर महाराणा प्रताप ने इस मांग को ठुकरा दिया था |

अबुल फजल लिखता है "राणा के रामप्रसाद हाथी को लेकर शाही दरबार में कई बार बात होती थी"

> हल्दीघाटी युद्ध में जख्मी हो चुके महाराणा प्रताप ने आखिरी दांव आजमाया और उन्होंने राजा रामशाह तोमर के पुत्र प्रताप तोमर से कहा कि "रामप्रसाद पर सवार होकर आगे आओ"

प्रताप सिंह तोमर

प्रताप तोमर 'रामप्रसाद' हाथी पर सवार होकर आगे आए

> रामप्रसाद ने आते ही न सिर्फ मुगल सैनिकों को बल्कि 14 मुगल हाथियों को भी मार गिराया

> अबुल फजल लिखता है "राणा के सबसे खास रामप्रसाद हाथी ने आते ही कोहराम मचा दिया | शाही फौज में खलबली मच गई | जब हालत बिगड़ती नज़र आई, तो कमाल खां ने गजराज हाथी को और पंजू ने रणमदार हाथी को आगे लाकर रामप्रसाद से भिड़न्त करवाई | शाही हाथी रणमदार के पैर उखड़ने लगे"

> "गजराज" व "रणमदार" नामक दो मुगल हाथियों की भिड़न्त रामप्रसाद से हुई, कि तभी एक तीर रामप्रसाद के महावत को लगा, जिससे महावत उसी समय वीरगति को प्राप्त हुआ |

> मुगल महावतों ने रामप्रसाद को चारों तरफ से घेर लिया | प्रताप तोमर इस प्रसिद्ध हाथी पर बैठकर वीरगति को प्राप्त हुए | बड़ी मुश्किल से एक मुगल महावत रामप्रसाद पर चढ़ गया और चारों तरफ से घिरे इस स्वामिभक्त हाथी को बेड़ियों में जकड़ लिया गया |

* बंदायूनी लिखता है "सैयदों से लड़ने वाला हाकीम खां सूर भागकर राणा के पास पहुंचा | दोनों फौजी टुकड़ियां मिल गईं और सब पहाड़ियों में भाग निकले | दरअसल जिस जज्बे से रामप्रसाद को मुगल महावत ने काबू में किया, ये देखकर राणा के हौंसले पस्त हो गए थे और वो भाग निकला | दोपहर हो चुकी थी और गर्मी इतनी तेज थी कि हमारी खोपड़ी का खून उबलने लगा था | हमें इस बात का भी इल्म था कि राणा पहाड़ियों में छल-कपट से काम लेता था और हो सकता है वह पहाड़ियों में घात लगाए बैठा हो, इसलिए हमने उसका पीछा ना करना ही मुनासिब समझा"

* अगले भाग में हाकिम खां सूर, झाला मान व तोमर वंश के बलिदान के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 30

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास


* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 94

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"

"महाराणा प्रताप व मानसिंह के बीच आमने-सामने की लड़ाई"


* युद्धभूमि में महाराणा प्रताप की नजर मुगल फौज के बीच 'मर्दाना' नामक हाथी पर सवार मानसिंह पर पड़ी | महाराणा प्रताप बिना समय गंवाए मुगल फौज को चीरते हुए मानसिंह तक पहुंचे |

महाराणा ने मानसिंह से कहा "तुमसे जहाँ तक हो सके बहादुरी दिखाओ"

चेतक ने अपने दोनों पैरे हाथी के सिर पर मारे, तभी महाराणा ने भाले से मानसिंह पर वार किया | भाला मानसिंह के महावत को चीरता हुआ निकल गया और मानसिंह हौदे में छुप गया | महाराणा प्रताप ने भाले से एक और वार किया पर भाला मानसिंह के कवच तक ही पहुंचा |

चेतक ने भी अपने पैरों से हाथी के सिर पर भरपूर प्रहार किया, परन्तु उतरते वक्त हाथी की सूंड में लगी तलवार से चेतक का पिछला पैर बुरी तरह जख्मी हो गया |

महाराणा प्रताप ने फौरन कटारी निकालकर मानसिंह पर फेंकी | मानसिंह फिर हौदे में दुबकने से बच गया, परन्तु महाराणा प्रताप को लगा कि कटारी से मानसिंह जख्मी हो चुका है, इसलिए महाराणा लौटने लगे |

"बाही राण प्रतापसी,
बख्तर में बरछी |
जाणक झींगर जाल में,
मुंह काढे मच्छी ||



* महाराणा प्रताप और मानसिंह के आमने-सामने के मुकाबले में यकिनन मानसिंह के पैर उखड़ गए थे | वह पीछे हट गया और उसकी मदद खातिर उसके भाई माधवसिंह को आना पड़ा | इस घटना को मानसिंह पर लिखे गए ग्रन्थ 'मानप्रकाश' में कुछ इस तरह घुमा-फिराकर लिखा है कि

"राजा मानसिंह के भाई माधवसिंह ने आकर राजा मान से कहा कि राजन् आप तनिक विश्राम कीजिये, इस युद्ध को मैं समाप्त करता हूं"

* अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है

"जब खलबली और कटाजञ्झ की लपटें उठ रही थीं, किस्मत की आग जल रही थी, तब कुंवर मानसिंह और राणा आमने-सामने आए और दोनों ने बड़ी बहादुरी दिखाई | ऊपर-ऊपर से देखने पर लग रहा था कि जीत दुश्मन की हो रही है, पर तभी अचानक खुदा की करामात से मदद मिली | पीछे खड़ी मुगल फौज पूरे इन्तज़ाम के साथ मैदान में आ गई और दुश्मन (राणा), जो कि बराबर ज्यादा जोर पकड़े था, उसकी हिम्मत टूट गई"

* महाराणा प्रताप का सामना मानसिंह के भाई माधोसिंह से हुआ | माधोसिंह ने महाराणा प्रताप को घेर लिया | महाराणा प्रताप पूरी तरह से मुगलों से घिरे हुए थे |

> नाथावत कछवाहा राजपूतों के मूलपुरुष नाथा कछवाहा के बेटे मनोहरदास ने जख्मी चेतक पर प्रहार कर दिया

> बंदायूनी लिखता है

"राणा कीका को माधोसिंह ने घेर लिया और राणा पर तीरों की बौछार होने लगी"

> ग्रन्थ मानप्रकाश में लिखा है कि

"महाराणा प्रताप जब युद्धभूमि छोड़ रहे थे, तब माधोसिंह ने उनको ललकारा | वह मेवाड़ी वीर भी चुनौती स्वीकार करते हुए मुड़कर आया | वीर प्रताप ने माधवसिंह और राजा मान को बाणों से ढक दिया, ठीक उसी तरह जिस तरह बादल की जलधारा भूमि को ढक देती है, परन्तु मानसिंह इन तीरों के अंधेरे को चीरकर प्रकाशमयी हुआ"


* महाराणा प्रताप बुरी तरह से जख्मी हो गए, तभी महाराणा जैसे दिखने वाले झाड़ौल के झाला मान/झाला बींदा वहां आ पहुंचे और महाराणा के छत्र, चंवर वगैरह धारण कर मुगलों को चकमा देने में सफल रहे

* महाराणा प्रताप ने लौटते समय माधोसिंह से कहा :-

"माधोसिंह, अपनी इस कायरता भरी विजय पर अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है | एकलिंग नाथ की सौगन्ध जब तक राणा प्रताप जीवित है, तब तक तुम्हें जीत का सपना तक नहीं देखने देगा | मैं जल्द ही तुम्हारी और मानसिंह की खुशियाँ छीन लूंगा | अपने ईश्वर से प्रार्थना करो कि दोबारा युद्धभूमि में सामना ना हो"

* अगले भाग में हल्दीघाटी युद्ध के दौरान बंदायूनी व आसफ खां के बीच हुई बातें व हाथियों की भीषण लड़ाई के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास का भाग - 29

महाराणा प्रताप (राणा कीका) के इतिहास



* मेवाड़ के इतिहास का भाग - 93

21 जून, 1576 ई.

"हल्दीघाटी का युद्ध"

"बहलोल खां वध"


* मेवाड़ी फौज के आक्रमण से मानसिंह, आसफ खां समेत बड़े-बड़े सिपहसालार भाग कर दायीं तरफ खड़ी सैयदों की फौजी टुकड़ी के पीछे छिप गए

महाराणा प्रताप तोमर वंश की फौजी टुकड़ी को लेकर सैयदों के सामने आए और महाराणा ने गरजकर कहा "आज सैयदों की जमात भी प्रतापसिंह को मानसिंह तक पहुंचने से नहीं रोक सकती"

इतना कहकर महाराणा प्रताप ने सैयदों पर आक्रमण किया | रामशाह तोमर के नेतृत्व वाली तोमर वंश की टुकड़ी ने सैयदों को युद्ध में उलझाए रखा, तब तक महाराणा प्रताप अकेले ही मुगल फौज को चीरते हुए कछवाहों की भारी जमात के बीच हाथी पर सवार मानसिंह के सामने पहुंचे |

मानसिंह के हाथी के ठीक आगे उजबेक जंगजू बहलोल खां घोड़े पर सवार था

महाराणा प्रताप ने बहलोल खां पर ऐसा भीषण प्रहार किया कि महाराणा की तलवार से बहलोल खां, उसके कवच व घोड़े के दो टुकड़े हो गए

इस भयानक भर्त्सना से मानसिंह के इर्द-गिर्द खड़े मुगल व कछवाहों में भगदड़ मच गई


* हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से भाग लेने वाले चारण कवि गोरधन बोगसा ने बहलोल खां के वध का आँखों देखा वर्णन चार दोहों के माध्यम से लिखा है, जो इस तरह हैं :-

1) गयंद मान रै मुहर ऊभौ हुतो दुरद गत,
सिलहपोसां तणा जूथ साथै |
तद बही रुक अणचूक पातल तणी,
मुगल बहलोल खां तणै माथै ||

(आमेर के मानसिंह कछवाहा के आगे अपने मददगार सवारों समेत खड़े बहलोल खां पर महाराणा प्रताप की तलवार बही)

2) तणै भ्रमऊद असवार चेटक तणै,
घणै मगरुर बहरार घटकी |
आचरै जोर मिरजातणैं आछटी,
भांचरै चाचरै बीज भटकी ||

(उदयसिंह के पुत्र चेटक सवार महाराणा प्रताप ने शरीर को चीरने वाली तलवार को बहुत जोश से भ्रमाकर अपने हाथ के जोर से मिरजा पर मारी, तो 2 ठठेरे की एरण पर बिजली गिरे ऐसे काट कर निकल गई)

3) सूरतन रीझतां भीजतां सैलगुर,
पहां अन दीजतां कदम पाछे |
दांत चढतां जवन सीस पछटी दुजड़,
तांत सावण ज्युहीं गई जाछे ||

(सूर्य प्रसन्न होने लगा, बड़े-बड़े पहाड़ रक्त से भीग गए, अन्य राजा अपने पैर पीछे देने लगे, उस समय महाराणा की तलवार शत्रु को इस तरह काटते हुए निकल गई, जैसे साबुन को तांत काटती है)

4) वीर अवसाण केवाण उजबक बहे,
राण हथबाह दुय राह रटियो |
कट झलम सीस बगतर बरंग अंग कटै,
कटै पाषर सुरंग तुरंग कटियो ||

(महाराणा प्रताप के इस बाहुबल की हिन्दू-मुस्लिम दोनों ने ही बड़ी प्रशंसा की | महाराणा के वार से बहलोल खां का टोप कट, शीष कट, बख्तर कट, शरीर कट, पाखर कटकर सुरंग रंग वाला घोड़ा तक कट गया)


* वीर सतसई में दोहा लिखा है :-

जरासंध बहलोल के, वध में यह व्यतिरेक।
भीम कियौ द्वै भुजन तें, पातल ने कर एक।।

(महाभारत के जरासंध व हल्दीघाटी के बहलोल खां, दोनों के ही युद्ध में दो टुकड़े हुए | परन्तु भीम ने जरासंध को मारने के लिए अपने दोनों हाथों का प्रयोग किया, जबकि महाराणा प्रताप ने एक ही हाथ से बहलोल खां को चीर दिया)


* अगले भाग में महाराणा प्रताप व मानसिंह की आमने-सामने की लड़ाई के बारे में लिखा जाएगा

:- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (बाठरड़ा-मेवाड़)